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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
सो णत्थि तं पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ।
भावविरओ वि समणो जत्थ ण दुरुढुल्लिओ जीवो ।। ४७ ।।
ऐसा न कोई प्रदेश लख, चौरासी योनि निवास में ।
हो भाव विरहित श्रमण जहाँ पर, जीव यह घूमा न हो । । ४७ ।।
अर्थ
इस संसार में जो चौरासी लाख योनियाँ हैं उनके वास ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी श्रमण होकर भी भाव रहित होते हुए भ्रमण न किया हो ।
भावार्थ
द्रव्यलिंग धारण करके निर्ग्रथ मुनि होकर शुद्धस्वरूप के अनुभव रूप भाव के
बिना यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता ही रहा, ऐसा कोई स्थान
नहीं रहा जिसमें नहीं जन्मा और नहीं मरा - ऐसा जानना ।
चौरासी लाख योनियों के भेद इस प्रकार हैं-पथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद-ये तो सात-सात लाख हैं सो बयालिस लाख हुए तथा वनस्पति दस लाख हैं; दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय दो-दो लाख हैं; पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख, नारकी चार लाख और मनुष्य चौदह लाख - इस प्रकार चौरासी लाख हैं । ये जीवों के उत्पन्न होने के स्थान जानना ।। ४७ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'द्रव्य मात्र से लिंगी नहीं होता है, भाव से लिंगी होता है'
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ।। ४४ ।।
हो भाव से ही लिंगी नहिं हो, लिंगी द्रव्य ही मात्र से।
इसलिए धारो भाव उस बिन, लिंग से क्या कीजिए । । ४४ । ।
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