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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
अणं च वसिणि पत्तो दुक्खं णियाणदोसेण ।
सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीवो ।। ४६ ।। एक अन्य साधु वशिष्ठ, पाया दुःख दोष निदान से ।
है नहीं वास स्थान जहाँ पे, जीव यह घूमा न हो । । ४६ ।।
अर्थ
'अन्य' और एक वशिष्ठ नामक मुनि निदान के दोष से दुःख को प्राप्त हुए अतः लोक में ऐसा कोई वास स्थान नहीं है जिसमें यह जीव जन्म-मरण सहित भ्रमण को प्राप्त नहीं हुआ हो ।
भावार्थ
वशिष्ठ मुनि की कथा इस प्रकार है- गंगा और गंधवती इन दोनों नदियों का जहाँ संगम हुआ है वहाँ जठरकौशिक नामक तापसी की पल्ली थी । वहाँ एक वशिष्ठ नामक तापसी पंचाग्नि तप तपता था । वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र नामक दो चारणमुनि आये। उन्होंने वशिष्ठ तापस से कहा कि 'तू अज्ञान तप करता है, इसमें जीवों की हिंसा होती है ।' तब तापस ने प्रत्यक्ष हिंसा देखके विरक्त होकर जैन दीक्षा ली और मासोपवास सहित आतापन योग स्थापित किया। उसके तप के माहात्म्य से सात व्यन्तर देवों ने आकर कहा कि 'आप हमको जो आज्ञा दो सो ही करें।' तब वशिष्ठ ने कहा- 'अभी तो मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है, मैं जन्मान्तर में तुमको याद करूँगा ।
'फिर वशिष्ठ ने मथुरापुरी आकर मासोपवास सहित आतापन योग स्थापित किया । उसको मथुरापुरी के राजा उग्रसेन ने देखकर भक्तिवश यह विचार किया कि 'इनको पारणा मैं कराऊँगा ।' उसने नगर में यह घोषणा कराई कि 'इस मुनि को अन्य कोई और आहार न दे।' पीछे पारणा के दिन मुनि नगर में आये तो वहाँ अग्नि का उपद्रव देख अन्तराय जानकर वापिस चले गये और फिर मासोपवास स्थापित किया। फिर पारणा के दिन नगर मे आये तब हाथी का क्षोभ देख अन्तराय जानकर वापिस चले गये और फिर मासोपवास स्थापित किया। पीछे पारणा के दिन फिर नगर में आये तब जरासंध का पत्र आया था, उसके निमित्त से राजा व्यग्रचित्त था सो मुनि को पड़गाहा नहीं। तब अन्तराय करके वापिस वन (५-५४
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