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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित । WisesWANING आचार्य कुन्दकुन्द pota HDodle ADOG) looct Dod HDool 1000 देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीरो। अत्तावणेण जादो बाहुबलि कित्तियं कालं ।। ४४।। देहादि संग के त्यागी, मान कषाय कलुषित भुजबलि । आतापना की काल बहु, पर सिद्धि तो पाई नहिं ।।४४।। अर्थ 聯繫听器听听器听听听听听听听听听听听听听器垢器 देखो ! श्री ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि देहादि परिग्रह को छोड़के धीर निग्रंथ मुनि होकर कितने ही काल तक आतापन योग से स्थित रहे तो भी मान कषाय से कलुषित परिणाम रूप होते हुए उन्होंने सिद्धि नहीं पाई। भावार्थ भरत चक्रवर्ती ने बाहुबलि से विरोध करके युद्ध प्रारम्भ किया और वहाँ अपमान पाया, पीछे बाहुबलि विरक्त होकर निपँथ मुनि हुए परन्तु मान कषाय की कुछ कलुषता रही कि 'भरत की भूमि पर मैं कैसे रहूँ !' तब कायोत्सर्ग योग से एक वर्ष तक स्थित रहे परन्तु केवलज्ञान नहीं पाया, पीछे कलुषता मिटी तब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ इसलिए कहते हैं कि 'यदि इतनी बड़ी शक्ति के धारक ऐसे महान पुरुषों ने भी भावशुद्धि के बिना सिद्वि नहीं पाई तब अन्य की क्या कथा! इसलिए भाव शुद्ध करना-यह उपदेश है।। ४४।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 40 उत्थानिका आगे मधुपिंगल मुनि का उदाहरण कहते हैं :महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो। सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय !।। ४५।। तज देह-आहारादि में, व्यापार भी हे भव्यनुत ! | मधुपिंग मात्र निदान से, श्रमणत्व को पाया नहीं।।४५।। 崇明崇崇明崇勇聽聽聽聽聽兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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