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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित WisesWANING आचार्य कुन्दकुन्द HDo lood ROCE FDOG) Des/ Dod भावार्थ यह जीव तो पवित्र और शुद्ध ज्ञानमयी है और यह देह ऐसा है जिसमें रहना अयोग्य है-ऐसा बताया है।।४२।। उत्थानिका 聯繫巩巩巩縣巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩業 आगे कहते हैं कि 'जो कुटुम्ब से छूटा वह नहीं छूटा, भाव से छूटे हुए को ही छूटा कहते हैं' :भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण। इय भाविऊण उज्झसु गंधं अभंतरं धीर !|| ४३।। वही मुक्त भाव से मुक्त जो, नहिं बन्धु-मित्र से मुक्त जो। हे धीर ! ऐसा जानकर तू, त्याग अन्तर वासना ।।४३ ।। अर्थ जो मुनि भावों से मुक्त हुआ उसी को मुक्त कहते हैं और बांधव आदि कुटुम्ब तथा मित्रों आदि से जो मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते इसलिए हे धीर मुनि ! तू ऐसा जानकर अभ्यन्तर की वासना को छोड़।। भावार्थ जो बाह्य बांधव आदि कुटुम्ब तथा मित्रों को छोड़कर निर्ग्रन्थ हुआ परन्तु अभ्यन्तर की ममत्व भाव रूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट में राग-द्वेष की वासना नहीं छूटी तो उसको निग्रंथ नहीं कहते, अभ्यन्तर की वासना छूटने पर निग्रंथ होता है इसलिए यह उपदेश है कि अंतरंग के मिथ्यात्व व कषायों को छोड़कर भाव मुनि 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 होना।। उपदेश है कि अंग, अभ्यन्तर की वासन | आगे पूर्व के जिन मुनियों ने भावशुद्धि के बिना सिद्धि नहीं पाई, उनके उदाहरण रूप नाम कहते हैं। उनमें प्रथम ही बाहुबलि का उदाहरण देते हैं :与泰拳崇崇明崇崇明崇明崇崇崇崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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