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________________ 卐卐業卐業卐業卐業卐業卐業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ अर्थ हे मुनिवर ! तू बालपने के काल में अज्ञान अवस्था में अशुचि - अपवित्र स्थान में अशुचि के बीच लेटा तथा बहुत बार अशुचि वस्तु ही खाई । बालपने को पा करके तूने ऐसी चेष्टायें कीं । स्वामी विरचित भावार्थ यहाँ 'मुनिवर' ऐसा संबोधन है सो पूर्ववत् जानना । जो बाह्य आचरण सहित मुनि हो उसी को यहाँ प्रधानता से उपदेश है कि 'जो बाह्य आचरण किया सो तो बड़ा कार्य किया परन्तु भाव के बिना यह निष्फल है इसलिए भाव के सन्मुख रहना, भाव के बिना ही ये अपवित्र स्थान मिले हैं' । । ४१ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'यह देह इस प्रकार का है - ऐसा विचारो मंसट्टि सुक्क सोणिय पित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं । खरिस वस पूय खिब्भिस भरियं चिंतेह देहउडं । । ४२ ।। पल, अस्थि, शोणित, आंत से, दुर्गन्ध शव सम जो स्रवे । है खरिस, चर्बी, राध पूरित, देह घट तू चिंत रे ! ।।४२।। अर्थ हेमुने ! तू देह रूपी घट को ऐसा विचार । कैसा है देह घट-मांस, हाड़, 'शुक्र' अर्थात् वीर्य, ‘शोणित' अर्थात् रुधिर, 'पित्त' अर्थात् उष्ण विकार और 'अंत्र' अर्थात् आंतों से स्रवते हुए-झरते हुए मल आदि के द्वारा तत्काल के म तक के समान दुर्गन्धित है। और कैसा है देह घट - 'खरिस' अर्थात् रक्त से मिला हुआ अपक्व मल,वसा' अर्थात् मेद, 'पूति' अर्थात् बिगड़ा हुआ खून और राध आदि सारी मलिन वस्तुओं से पूर्ण भरा है। ऐसे देह रूपी घट का तू विचार कर । 卐卐] टि0-1. 'म0 टी0' में इसके स्थान पर 'किव्विस' (सं)- किल्विष) पाठ देकर ऐसा कहा गया है कि 'साहित्य में व को में 'खिब्भिस' ाब्द मिलता नहीं है इसलिए 'किव्विस ' पाठ स्वीकार किया गया है ।' ५-५० - 卐卐卐 麻糕糕蛋糕糕糕糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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