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________________ *業業業業業業業業出 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित पडिदेस समय पुग्गल आउग परिणाम णाम कालट्ठ । गहिउज्झियाइं बहुसो अनंतभवसायरे जीवो । । ३५ । । प्रतिदेश-समय-आयुष्क में, परिणाम-नाम व काल में। छोड़े-ग्रहे पुद्गल बहुत इस अपार भवसागर विषै । । ३५ ।। अर्थ इस जीव ने इस अनन्त अपार भवसमुद्र में लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उनके प्रति समय-समय और पर्याय के आयु प्रमाण काल और अपने जैसा योग, कषाय के परिणमन स्वरूप परिणाम और जैसा गति, जाति आदि नामकर्म के उदय से हुआ नाम और जैसा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल, उनमें पुद्गल के रूप स्कन्धों को बहुत बार - अनंत बार ग्रहण किया और छोड़ा। भावार्थ भावलिंग के बिना लोक में जितने पुद्गल स्कंध हैं उनको सबको ही ग्रहण किया और छोड़ा तो भी मुक्त नहीं हुआ । । ३५ ।। उत्थानिका आगे क्षेत्र को प्रधान करके कहते हैं : तेयाला तिण्णि सया रज्जूणं लोयखित्तपरिमाणं । परमाणु मुत्तूणट्ट पएसा जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीवो ।। ३६ ।। इस तीन सौ चालीस त्रय, राजू बराबर लोक में । तज आठ कोई प्रदेश ना, यह जीव जहाँ घूमा न हो । । ३६ । । टि0-1. 'श्रु0 टी0' में इस गाथा का भाव इस प्रकार से दिया है - 'हे जीव ! अनन्तानन्त संसार समुद्र में तूने जिनसम्यक्त्व के बिना प्रत्येक दे, प्रत्येक समय, प्रत्येक पुद्गल, प्रत्येक आयु, प्रत्येक परिणाम, प्रत्येक नामकर्म और प्रत्येक काल में स्थित हो होकर अनन्त ारीर धारण किये और छोड़े हैं। जिनसम्यक्त्व रूप भाव के द्वारा अनन्त संसार का छेद हो जाता है तथा अल्पकाल में जीव मुक्त हो जाता है।' गाO 35 ५-४६ 卐卐卐糕 卐 翬糕糕糕糕糕糕糕糕卐 ≡ 縢糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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