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________________ अष्ट पाहु rata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Dod. Ded Door ADDA Dool Dool 聯繫巩巩繼听器听听听听听听听听听听听听听听听 आगे इसी अर्थ को द ढ़ करने के लिए भावलिंग को प्रधान करके कहते हैं : कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं । जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण।। ३४।। हो जन्म-जरा-मरण से पीड़ित, काल अनन्त ही दुःख लहा। जिनलिंग धारण कर परम्पर, भावलिंग रहित रहा ।। ३४।। अर्थ यह जीव इस संसार में जिसमें परम्परा से भावलिंग नहीं हुआ ऐसे 'जिनलिंग' अर्थात् बाह्य दिगम्बर लिंग के द्वारा जन्म-जरा-मरण से पीड़ित होता हुआ अनन्त काल पर्यन्त दुःख ही को प्राप्त हुआ। भावार्थ द्रव्यलिंग धारण किया और उसमें परम्परा से भी भावलिंग की प्राप्ति नहीं हुई इस कारण द्रव्यलिंग निष्फल गया और मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई, संसार ही में भ्रमण किया। यहाँ आशय ऐसा है कि 'जो द्रव्यलिंग है सो भावलिंग का 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 टि0-1. श्रु0 सूरि' ने इस पंक्ति का जो अर्थ किया है वह 'पं0 जयचंद जी' द्वारा कृत अर्थ से भिन्न हैं। उन्होंने लिखा है कि परम्परा-भाव से रहित होकर इस जीव ने अर्हद्रूप विष्टि जिनलिंग धारण किया। 'परम्परा भाव से रहित होकर' का अर्थ है-परम्परा अर्थात् आचार्य प्रवाह के द्वारा उपदिष्ट जास्त्र में भावरहित होकर अर्थात् प्रतीति से वर्जित होकर। वहीं आगे प्रन किया है कि वह परम्परा क्या है ?' उत्तर दिया है कि 'इस अवसर्पिणी के ततीय काल के अन्त में श्री वषभनाथ भगवान ने अर्थ रूप से स्त्र का उपेदन किया था और वषभसेन गणधर ने उसे ग्रन्थ रूप से परिणत किया। उसी परम्परा में भगवान महावीर ने अर्थ का प्रका किया और गौतम गणधर ने उसे ग्रन्थ रूप से परिणत किया। उसी अनुक्रम से पंचम काल में प्रमाणभूत दिगम्बर आचार्यों ने उपदे दिया-यह ही आचार्य परम्परा है और उन्हीं आचार्यों के द्वारा उपदिष्ट स्त्र को हमें प्रमाण मानना चाहिए, अन्य मिथ्यादष्टि विसंघियों अर्थात् मूलसंघ से विरुद्ध संघियों द्वारा कृत स्त्र को प्रमाण नहीं मानना चाहिए।' 步骤業樂業崇明藥業 業業藥業業業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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