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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे यह जीव संसार में जो भ्रमण करता है उस भ्रमण के परावर्तन का स्वरूप मन में धारण करके निरूपण करते हैं। उनमें प्रथम ही सामान्य रूप से लोक के
प्रदेशों की अपेक्षा से कहते हैं :सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ। जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो।। ३३।। परमाणु सम स्थान भी, नहिं है कोई त्रैलोक्य में। जहाँ हो के द्रव्यश्रमण ये जीव, मरा न हो-जनमा न हो।।३३।।
अर्थ यह जीव द्रव्यलिंग का धारक मुनि होते हुए भी ये जो तीन लोक प्रमाण सर्व स्थान हैं उनमें एक परमाणु प्रमाण एक प्रदेशमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है जहाँ जन्मा नहीं हो तथा मरा नहीं हो।
भावार्थ द्रव्यलिंग धारण करके भी सर्व लोक में यह जीव जन्मा-मरा, ऐसा एक भी प्रदेश शेष नहीं रहा जिसमें जन्मा-मरा न हो। इस प्रकार भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मुक्ति को प्राप्त नहीं हुआ-ऐसा जानना।।३३।।
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टि0-1 अहो। यह मिथ्यात्व भी जीव का कितना अहितकारक है कि समूचा तीन लोक द्रव्यलिंगी
मुनि के उत्पन्न होने का स्थान है। गाथार्थ में वर्णन है कि तीन लोक में ऐसा परमाणु प्रमाण भी स्थान नहीं है जहाँ द्रव्यलिंगी मुनि उत्पन्न न हुआ हो और मरा न हो।' 2. मोक्षमार्ग में द्रव्य व भाव दोनों ही लिंगो की आवयकता है परन्तु दोनों में भावलिंग ही प्रधान है, परमार्थभूत है क्योंकि भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग मात्र से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। इसी पाहुड़ की गाथा 5 के भावार्थ के अनुसार उससे 'कर्म निर्जरा रूप कार्य' और 'कल्याण रूप फल' नहीं होता।
५-४३ 步骤業樂業崇明藥業 業業藥業業業助業
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