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________________ अष्ट पाहुstrata स्वामी विरचित WisesWANING आचार्य कुन्दकुन्द pota Dool] Dooo HDoA अविनय करे-ऐसे वेषधारी को कुशील कहते हैं। ३. जो वैद्यक, ज्योतिष, विद्या तथा मंत्र आदि की आजीविका करे और राजादि का सेवक हो-ऐसे वेषधारी को संसक्त कहते हैं। ४. जो जिनसूत्र के प्रतिकूल, चारित्र से भ्रष्ट एवं आलसी हो-ऐसे वेषधारी को अवसन्न कहते हैं। ५. जो गुरु का आश्रय छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द प्रवर्ते एवं जिन आज्ञा का लोप करे-ऐसे वेषधारी को म गचारी कहते हैं। इनकी जो भावना भाता है वह दुःख ही को प्राप्त होता है।।१४।। उत्थानिका 樂樂崇崇崇崇明崇崇崇兼事業事業事業樂業先崇崇勇 इस प्रकार देव होकर तूने मानसिक दुःख पाये-ऐसा कहते हैं : देवाण गुणविहूई इड्डीमाहप्प बहुविहं दट्ठ। होऊण हीणदेवो पत्तो बहुमाणसं दुक्खं ।। १५ ।। सुर अन्य बहुविध गुण-विभूति, ऋद्धि महिमा देखकर । तू मानसिक बहु दुःख पाए, हीन सुरगति प्राप्त कर ।।१५।। अर्थ हे जीव ! तूने हीन देव होकर अन्य महर्द्धिक देवों की गुण, विभूति तथा ऋद्धि आदि का अनेक प्रकार का माहात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःखों को प्राप्त किया। भावार्थ स्वर्ग में हीन देव होकर जब बड़े ऋद्धिधारी देव की अणिमा आदि गुण की विभूति, देवांगना आदि का बहुत परिवार तथा आज्ञा एवं ऐश्वर्य आदि का माहात्म्य देखता है तब मन में ऐसा विचारता है कि 'मैं पुण्यरहित हूँ और ये बड़े पुण्यवान हैं जो इनके ऐसी विभूति, माहात्म्य एवं ऋद्धियाँ हैं' सो ऐसे विचार से मानसिक दुःख होता है।।१५।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 樂樂崇崇明崇明藥業|賺業藥崇崇崇勇崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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