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________________ 秦業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द भाऊण आगे द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होते हैं उनको कहते हैं :अणाइकालं अवाराओ । पासत्थभावणाओ दु पत्तो बहु बार काल अनादि से, पार्श्वस्थ आदि कुभावना । भा करके पाया दुःखों को, वे भावना दुःख बीज हैं | | १४ || भाकर दुःख को प्राप्त हुआ । किनसे जो भाव, वे ही हुए दुःख के * अष्ट पाहड़ अर्थ हे जीव ! तू अनादि काल से लेकर अनंत बार पार्श्वस्थ आदि की भावनाओं को दुःख पाया - 'कुभावना' अर्थात् खोटी भावनाओं बीज, उनसे दुःख पाया । भावार्थ उत्थानिका 'दानवी भावना' होती है । १. जो मुनि कहलावे और वसतिका बांधकर आजीविका करे वह पार्श्वस्थ स्वामी विरचित वेषधारी कहा जाता है । २. जो कषायी होकर व्रतादि से भ्रष्ट रहे तथा संघ का कुभावणाभावबीएहिं ।। १४ । । विद्या के द्वारा जीविका करने वाला हो, निर्दयी हो और पर जीवों को पीड़ित करने वाला हो उसके देव - दुर्गति को प्राप्त होता है । 5.आभियोगिकी भावना-अभियोग, कौतुक और भूतिकर्म आदि निंद्य कर्म करता हुआ साधु 'आभियोग्य भावना' को प्राप्त होता है। ऋद्धि, धन-सम्पदा के लिए अथवा मिष्ट भोजन के लिए वा 'म0 टी0' में इन पांच भावनाओं इन्द्रियजनित सुख के लिए मंत्र यंत्रदिक करना 'अभियोग कर्म' कहलाता है। वीकरण करना 'कौतुक कर्म' है और बालकादिक की रक्षा करने का मंत्र सो 'भूतिकर्म' है । वहीं (ग्रंथ में) आगे लिखा है कि इन पांच भावनाओं से जिसने मुनिधर्म की विराधना की ऐसा जो साधु, सो कदाचित् परीषह सहने से वा तपचरणादि करने से देव भी हो जाए तो भवनत्रिक में के चिन्तन रूप, 'कैल्विषी' क्ले मोहविषयक चिंतनात्मक, ‘आसुरी' के सम्बन्ध में संक्षेप से चिंतन रूप और क्ले कहा है कि 'कांदर्पी भावना' कामचेष्टा उत्पन्न करने वाली, 'संमोही' कुटुम्ब (दानवी) सर्व पदार्थ भक्षणविषयक चिंतनात्मक एवं 'आभियोगिकी’ युद्धविषयक चिंतनात्मक होती है। इस प्रकार ये सारी भावनाएँ रागद्वेषमोहात्मक और संक्ले परिणामात्मक अर्थात् विभावभावात्मक होती हैं । ५-२७ 卐卐業 卐 翬糕糕糕糕糕糕糕糕卐 ≡ 縢糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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