SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ANDools BCC S/FOOT Des/ DoA RDCON वे सहज-शारीरिक-आगन्तुक, मानसिक हैं चार जो। दुःखों को मानव जन्म में, पाया अनन्ते काल तक ।।११।। अर्थ हे जीव ! तूने मनुष्यजन्म में अनन्त काल तक १. आगन्तुक' अर्थात् अकस्मात् वज्रपातादि के आ पड़ने रूप, २. मानसिक' अर्थात् मन ही में होने वाले तथा विषयों की वांछा हो परन्तु तदनुसार न मिलने रूप, ३.'सहज' अर्थात् वातपित्तादि से सहज ही उत्पन्न होने वाले और रागद्वेषादि से वस्तु को इष्ट-अनिष्ट मानकर दुःखी होने रूप तथा ४.'शारीरिक' अर्थात् व्याधि-रोगादि और परक त छेदन-भेदन आदि से होने वाले–ये चार प्रकार के और 'चकार' से इनको आदि लेकर अनेक प्रकार के दुःख पाए।।११।। | उत्थानिका 崇先添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे देवगति के दुःख कहते हैं :सुरणिलएसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस! दुःक्खं सुहभावणारहिओ।। १२।। हे महायश ! सुरलोक में, सुर अप्सरा के विरह में। शुभ भावना बिन मानसिक दुःख, पाए जो कि तीव्र थे। ।१२ ।। अर्थ हे महायश ! तूने 'सुरनिलये' अर्थात् देवलोक में 'सुरच्छर' अर्थात् प्यारे देव तथा प्यारी अप्सरा के वियोग काल में उसके वियोग सम्बन्धी दुःख तथा इन्द्रादि बड़े ऋद्धिधारियों को देखकर अपने को हीन मानने रूप मानसिक दुःख-इस प्रकार के तीव्र दुःख शुभ भावना से रहित होते हुए पाए। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 | टिO-1. श्रु0 टी0' में लिखा है-'महत्' अर्थात् लोक्यव्यापनल', 'य' अर्थात् 'पुण्यगुणानुकीर्तन' होता है जिसका वह 'महाय' कहलाता है। यहाँ 'महाय!' सम्बोधन देकर 'कुंदकुंद 崇勇業樂業樂業、 樂業樂業% 崇崇明業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy