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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
भावार्थ
यहाँ 'महायश' जो संबोधन किया उसका आशय यह है कि कोई मुनि निर्ग्रन्थ
लिंग धारण करे और द्रव्यलिंगी मुनि की समस्त क्रिया करे परन्तु आत्मा का
स्वरूप जो शुद्धोपयोग उसके सन्मुख न हो उसको यहाँ प्रधानता से उपदेश है कि तू जो मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य किया उससे तेरा यश लोक में प्रसिद्ध
हुआ' परन्तु भली भावना जो शुद्धात्मतत्त्व का अभ्यास उसके बिना तपश्चरणादि
करके तू स्वर्ग में देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयों का लोभी होने से मानसिक दुःख ही से तप्तायमान हुआ' ।। १२ ।।
स्वामी' ने आगमानुकूल बाह्य आचरण सहित किन्तु भावरहित द्रव्यलिंगी मुनि की भी कितनी सा की है। इसी प्रकार उन्होंने इसी भावपाहुड़ की अन्य गाथाओं में भी मुनि योग्य
समस्त क्रियाओं युक्त द्रव्यलिंगी मुनि के लिए अन्य महिमापूर्ण एवं प्रिय सम्बोधनों का भी प्रयोग किया है जैसे गाथा 6 में 'पंथिय !' (वपुरी पथिक), गाथा 7 में 'सपुरिस !' (सत्पुरुष), गाथा
17 में 'मुणिप्रवर !' (मुनिप्रवर, मुनिश्रेष्ठ), गाथा 18, 38 व 135 में पुन: 'महाजस !', गाथा 24, 41 व 133 में 'मुणिवर !' ( मुनिप्रधान), गाथा 24, 43, 55 व 141 में 'धीर !', गाथा 27
में 'मित्त !' (मित्र) और गाथा 45 में 'भवियणुय !' (सं)- भव्यनुत । अर्थ - भव्य जीवन क नमने योग्य मुनि) आदि-आदि ।
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टि (0 - 1. माननीय पं0 जयचन्द जी' ने पाहुड़ की अनेक प्राकृत गाथाओं में श्री कुंदकुंद स्वामी द्वारा द्रव्यलिंगी मुनि को दिए हुए 'महाजस' एवं 'मुनिवर' आदि सम्बोधनों का आय बताते हु इस भावार्थ में व इसी भावपाहुड की गाथा 41 के भावार्थ में बड़ी विशेष बात कही है कि 'द्रव्यलिंगी मुनि की समस्त क्रिया आदि सहित परन्तु भावरहित मुनि को यहाँ प्रधानपने उपदे है कि ये बाह्य आचरण करके, मुनि होकर तूने बड़ा कार्य किया है, तेरा या लोक में प्रसिद्ध हुआ है ( अतः बाह्य लिंग का निषेध नहीं ) परन्तु भाव बिना यह सब निष्फल ही गया, भाव बिना देव होने पर भी तू मानसिक दुःखों ही से तप्तायमान रहा है अतः भाव के सन्मुख रहना।' इस प्रकार बाह्य आचरण सहित द्रव्यलिंगी मुनि को भी उसकी प्रसापूर्वक भावलिंग धारण करने के उपदेा का भाव 'पं0 जी' ने यहाँ पर व अन्य स्थान-स्थान पर दिया है। इसी भावपाहुड की गाथा 17 के भावार्थ में भी उन्होंने यही भाव दिया है।
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निचयरहित व्यवहार पर बहुत अधिक प्रहार करके व उसका बहुत ज्यादा निषेध कर करके
ही परमार्थ की प्रेरणा दी जा सके- ऐसा नहीं वरन् उसका निराकरण न करते हुए बल्कि उसकी सापूर्वक परमार्थ की प्रेरणा की शैली अत्युत्तम है।
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