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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADGE Dod 1000 fact 1000 उत्थानिका 添馬添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे तिर्यंच गति के दुःख कहते हैं :खणणत्तावण वालण वेयण विच्छेयणा णिरोहं च। पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ।। १०।। रे! खनन-उत्तापन-ज्वलन औ, व्यजन-छेदन-रोकना । चिरकाल दुःख तिर्यंच में , पाए हो भाव से रहित तू ।।१०।। अर्थ हे जीव ! तूने तिर्यंच गति में खनन (खोदा जाना), उत्तापन (तपाया जाना), ज्वलन (जलाया जाना), व्यजन (पंखे द्वारा डुलाया जाना), व्युच्छेदन (छेदा जाना) एवं निरोधन (रोका जाना) इत्यादि के दुःख बहुत काल पर्यन्त पाये। कैसा होते हुए पाए भावरहितता के द्वारा अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि भावरहित होते हुए पाए। भावार्थ इस जीव ने सम्यग्दर्शनादि भाव के बिना तिर्यंचगति में चिरकाल अर्थात असंख्यात अनंत काल पर्यन्त इस प्रकार दु:ख पाए–पथ्वीकाय में तो कुदाल आदि से खोदे जाने के द्वारा; जलकाय में अग्नि से तपाये जाने एवं ढोले जाने इत्यादि के द्वारा; अग्निकाय में जलाए व बुझाए जाने आदि से; वायुकाय में भारी से हलकी वायु के चलने एवं फटके जाने आदि से; वनस्पति में काटे जाने, छिदने व रांधे जाने आदि से; विकलत्रय में अन्य से रुकना एवं अल्प आयु से मरना इत्यादि से तथा पंचेन्द्रिय पशु, पक्षी एवं जलचर आदि में परस्पर घात तथा मनुष्यादि के द्वारा की हुई वेदना, भूख-प्यास, रोके जाने एवं बांधे जाने इत्यादि से दुःख पाए।।१०।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे मनुष्यगति के दुःख कहते हैं :आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि। दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं।। ११।। 与泰拳崇崇明崇崇明崇明崇崇崇崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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