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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
दुःख पाए अतः अब तू 'जिनभावना' अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भा जिससे तेरे संसार का भ्रमण मिटे |
भावार्थ
चार गति के दुःख अनादि काल से संसार में परमात्मा की भावना के बिना पाए
अतः
जीव ! अब तू जिनेश्वर देव का शरण ले और शुद्धस्वरूप का बार-बार
भावना रूप अभ्यास कर जिससे तुझे संसार के भ्रमण से रहित मोक्ष की प्राप्ति हो - यह उपदेश है । । 8 ।।
उत्थानिका
आगे चार गति के दुःखों को विशेष रूप से कहते हैं जिनमें प्रथम ही नरक के दुःख कहते हैं :
सत्तसु णरयावासे दारुणभीसाइं असहणीयाइं ।
भुताई सुइरकालं दुःखाइं णिरंतरं हि सहियाइं ।। १ ।। सातों ही नरकावासों में, दारुण सुतीव्र अशुद्ध जो ।
दुःखों को भोगा निरन्तर, जिस काल तक थे वे सहे । । 9 ।।
अर्थ
हे जीव ! तूने सात नरक भूमियों के 'नरक आवास' अर्थात् बिलों में दीर्घ काल
तक दारुण अर्थात् तीव्र, भयानक और असहनीय अर्थात् सहे न जाएं - ऐसे दुःखों को निरन्तर ही भोगा और सहा ।
भावार्थ
नरक की सात पथ्वी हैं जिनमें बहुत बिल हैं, उनमें एक सागर से लगाकर तेतीस
सागर तक की उत्कष्ट आयु है, वहाँ यह जीव अनंत काल से आयु पर्यन्त अति तीव्र
दुःख सहता आया है । । 9 ।।
५-२२ 專業
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