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________________ *業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'द्रव्यलिंग तूने अनादि से बहुत धारण किए परन्तु उनसे कुछ सिद्धि नहीं हुई ' : भावरहिण सपुरिस ! अणाइकालं अनंतसंसारे । बहुसो हि उज्झियाइं सत्पुरुष काल अनादि, अन्त विहीन इस संसार में । बहु बार भाव रहित दिगम्बर रूप धारे औ तज दिए । ।७।। बाहिरणिग्गंथरूवाई । । ७ ।। अर्थ हे सत्पुरुष ! अनादि काल से लगाकर इस अनन्त संसार में तूने भावरहित निर्ग्रथ रूप बहुत बार ग्रहण किए और छोड़े । भावार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप भाव के बिना बाह्य निर्ग्रथ रूप द्रव्यलिंग तूने संसार में अनादिकाल से लगाकर बहुत बार धारण किये और छोड़े फिर भी कुछ सिद्धि नहीं हुई, चारों गतियों में भ्रमण ही करता रहा । । ७ ।। उत्थानिका वही कहते हैं : भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुयगइए । पत्तोसि तीव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव ! ।। 8 ।। भीषण नरक तिर्यंच गति, मानुष्य और कुदेव गति । पाये जो दुःख हैं तीव्र अब, जिनभावना भा जीव रे ।। 8 ।। अर्थ हे जीव ! तूने भीषण - भयकारी नरक, तिर्यंच, कुदेव एवं कुमनुष्य गति में तीव्र -२१ 卐 *糕糕糕糕糕糕糕糕糕卐縢糕糕糕縢業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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