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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ यदि बाह्य परिग्रह को छोड़कर मुनि हो जाए और परिणाम अशुद्ध हों अर्थात् अभ्यन्तर परिग्रह को न छोड़े तो बाह्य का त्याग कुछ कल्याण रूप फल नहीं कर सकता क्योंकि सम्यग्दर्शनादि भावों के बिना कर्म की निर्जरा रूप कार्य नहीं होता। पहली गाथा से इसमें यह विशेष है कि यदि मुनिपद भी ले और परिणाम उज्ज्वल नहीं रहें अर्थात् आत्मज्ञान की भावना नहीं रहे तो कर्म कटते नहीं ।।५।।
कम उत्थानिका
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आगे उपदेश करते हैं कि 'भाव को परमार्थ जानकर इसी को अंगीकार करो':
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय ! सिवपुरिपंथं जिणउवइ8 पयत्तेण।।६।।
जो भाव वही परमार्थ है उस रहित लिंग से क्या तुझे । वही शिवपुरी का मार्ग है, हे पथिक ! जिनवर ने कहा ।।६।।
अर्थ हे मुनि! क्योंकि जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट भाव ही मोक्षपुरी का मार्ग है इसीलिए हे शिवपुरी के पथिक अर्थात् मार्ग में चलने वाले! तू भाव ही को प्रथम अर्थात परमार्थभूत जान, भावरहित मात्र द्रव्यलिंग से तुझे क्या साध्य है अर्थात कुछ भी नहीं।
भावार्थ आत्मस्वभावरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही जिनेश्वरदेव ने परमार्थ से मोक्षमार्ग कहा है इसलिए इसी को परमार्थ जानकर अंगीकार करना, केवल द्रव्य मात्र लिंग से क्या साध्य है-ऐसा उपदेश है।।६।।
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टि0-1. भाव बिना बाह्य क्रिया व त्यागादि के लिए निष्फल व अकार्यकारी'-ये दो |ब्द आते हैं
जिनका खुलासा यहाँ किया है। निष्फल' का अर्थ है-'कल्याण रूप फल रहित' और 'अकार्यकारी' का अर्थ है-उससे कर्म निर्जरा रूप कार्य का न हो सकना।'
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