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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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निर्वस्त्र लम्बे हाथ कर यदि, तप करे जन्मान्तरों। अरु कोड़ाकोड़ी काल तक पर, भाव रहित न सीझता।।४।।
अर्थ यदि बहुत जन्मान्तरों तक अर्थात कोड़ाकोड़ी भी संख्या मात्र काल तक हाथ लम्बे लटकाकर और वस्त्रादि का त्याग करके तपश्चरण करे तो भी भावरहित के सिद्धि नहीं होती।
भावार्थ भाव में यदि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र रूप विभाव भाव रहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप स्वभाव में प्रव त्ति न हो तो कोड़ाकोड़ी भव तक कायोत्सर्ग कर नग्न मुद्रा धारण करके तपश्चरण करे तो भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार भाव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप भाव प्रधान हैं और उनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है क्योंकि उसके बिना ज्ञान एवं चारित्र मिथ्या कहे गए हैं-ऐसा जानना।।४।।
उत्थानिका
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आगे इसी अर्थ को द ढ़ करते हैं :परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुच्चेइ बाहिरे य जई। बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ।। ५।।
परिणामों के होते अशुद्ध जो, बाह्य परिग्रह त्यागे यदि । वह बाह्य परिग्रह त्याग भाव विहीन मुनि का क्या करे ।।५।।
अर्थ परिणामों के अशुद्ध रहते हुए यदि मुनि होकर बाह्य परिग्रह को छोड़े तो वह बाह्य परिग्रह का त्याग भावरहित मुनि के क्या करेगा अर्थात् कुछ भी नहीं करेगा।
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