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________________ अष्ट पाहु rata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द S/B0 lood ADOG/ DOORN 崇崇明崇崇崇崇明藥業業助兼業助兼業助業%崇崇勇崇崇勇 आगे कहते हैं कि 'बाह्य द्रव्य निमित्त मात्र है और उसका अभाव जीव के भाव की विशुद्धि का निमित्त है अतः उसका त्याग किया जाता है' :भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो अभंतरगंथजुत्तस्स।। ३।। बाहिर परिग्रह त्याग जो, वह भावशुद्धि निमित्त है। अन्तर परिग्रहयुक्त के सो, बाह्य त्याग विफल कहा ।।३।। अर्थ बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है सो भाव की विशुद्धि के लिए किया जाता है अतः रागादि रूप अभ्यंतर परिग्रह से जो युक्त है उसका बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। भावार्थ अंतरंग भाव के बिना बाह्य त्यागादि की प्रव त्ति निष्फल है-यह प्रसिद्ध है।।३।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'करोड़ों भवों तक तप करे तो भी भाव के बिना सिद्धि नहीं है': भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ। जम्मतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।। ४।। टि0-1. बाह्य त्याग की कीमत है क्योंकि वह भावविद्धि का निमित्त है परन्तु भाव विद्धि उसके निमित्त से न हुई तो वह निष्फल ही तो ठहरा। बाह्य व अन्तरंग दोनों त्याग की तुलना में बाह्य की अपेक्षा अन्तरंग त्याग दुर्लभ है। 'श्रु0 टी0' में इस सम्बन्ध में संस्कृत का एक लोक उद्धत किया है जिसका अर्थ है-'दरिद्र मनुष्य अपने पाप के कारण बाह्य परिग्रह के त्यागी तो स्वयं है परन्तु जो अन्तरंग का त्यागी है ऐसा साधु लोक में दुर्लभ है।' 2. निचय बिना व्यवहार मात्र से सिद्धि नहीं होती। 步骤業樂業崇明藥 崇明藥藥業坊業業助業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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