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क्रमांक विषय
पष्ठ १२१. चिरकाल से ध्याये हुए आर्त-रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याने की प्रेरणा
५-१२३ १२२. भावश्रमण की ध्यान कुठार द्वारा संसार व क्ष छेदन में
शक्यता और द्रव्यश्रमण की इन्द्रिय सुख आकुलता के कारण अशक्यता
५-१२४ १२३. राग रूपी पवन से रहित मनग ह में ध्यान दीपक जलता हैगर्भग ह के दीपक समान
५-१२४ १२४. ध्यान में आराधना के नायक पंच परमेष्ठी को ध्याने का उपदेश ५-१२५ १२५. ज्ञानमय निर्मल शीतल जल के पान से व्याधि, जरा और मरण वेदना की दाह शांत होती है।
५-१२६ १२६. भावश्रमण के कर्म बीज के दग्ध होने पर भवांकुर की अनुत्पत्ति ५-१२७ १२७. भावश्रमण सुखों को व द्रव्यश्रमण दुःखों को पाता है-ऐसे गुण दोषों को जानकर तू भावश्रमण हो।
५-१२८ १२८. भावश्रमण ही अभ्युदय सहित तीर्थंकर, गणधरादि पदवी के सुख पाते हैं
५-१२६ १२९. दर्शन-ज्ञान-चारित्र से शुद्ध व निर्माय (माया रहित) भावश्रमण
धन्य हैं उन्हें मन-वचन-काय से सदा नमस्कार हो ५-१२६ १३०-१३१. धीर श्रमण देव-विद्याधरों की अतुल ऋद्धियों से ही अहं को
प्राप्त नहीं होते तो मनुष्य व देवों के सुखों की क्या कथा ५-१३०-१३१ १३२. जब तक जरा, रोग एवं इन्द्रियबल की क्षीणता न हो तब तक आत्महित कर लेने की प्रेरणा
५-१३१ १३३. छह अनायतन का परिहार करके जीव का स्वरूप जानकर षट्काय के जीवों की दया करने का उपदेश
५-१३२ १३४. अनंत भवसागर में भ्रमते हुए भोग सुख के निमित्त सकल जीवों के दशविध प्राणों के आहार की प्रव त्ति
५-१३३ १३५. प्राणिवध का फल-कुयोनियों में जन्म-मरण करके निरंतर दुःखों ही की प्राप्ति
५-१३४ १३६. कल्याण व सुख लाभ के लिए जीवों को मन-वचन-काय से अभयदान देने का उपदेश
५-१३५
५-१०