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क्रमांक विषय
पष्ठ १०५. दस प्रकार की वैयाव त्ति करने का उपदेश
५-१०४ १०६. लगे हुए दोषों को मान व माया तजकर गुरु के सन्मुख प्रकाशित करने का कर्तव्य
५-१०४ १०७. कर्म मल नाश के लिए दुर्जन के निष्ठुर व कटुक वचनों को । सह लेने का उपदेश
५-१०५ १०८. क्षमा से परिमंडित मुनि समस्त पापों का नाशक और विद्याधर, देव एवं मनुष्यों से प्रशंसनीय होता है
५-१०६ १०९. क्षमा सलिल से चिरसंचित क्रोध अग्नि को शमन करने की प्रेरणा
५-१०७ ११०. उत्तम बोधि के लिए दीक्षाकालादि की भावना का उपदेश ५-१०७ १११. भावरहित के प्रकट रूप से बाह्य लिंग अकार्यकारी अतः
अंतरंग शुद्धिपूर्वक ही बाह्य लिंग के सेवन का उपदेश ५-१०६ ११२. चार संज्ञाओं से मोहित जीव का पराधीन होकर अनादि से
संसार भ्रमण ११३. पूजा-लाभ की आकांक्षा के बिना भावशुद्धिपूर्वक उत्तर गुणों के पालन का उपदेश
५-१११ ११४. त्रिकरण शुद्धि से तत्त्व की भावना करने की प्रेरणा
५-११२ ११५. तत्त्व की भावना के बिना जरा-मरण विवर्जित मोक्ष स्थान का लाभ नहीं
५-११४ ११६. परिणाम ही पाप-पुण्य रूप बंध और उनके अभाव रूप मोक्ष का कारण है
५-११५ ११७. जिनवचन से पराङ्मुख जीव मिथ्यात्व, कषाय, असंयम व योग के द्वारा अशुभ कर्म को बाधता है
५-११६ ११८. भावशुद्धि को प्राप्त जिनाज्ञा का श्रद्धानी सम्यग्द ष्टि शुभ कर्म बाँधता है
५-११७ ११९. ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को जलाने के लिए अनंत ज्ञानादि गुण रूप चेतना को प्रगट करने की ज्ञानी की भावना
५-११८ १२०. चौरासी लाख उत्तर गुण सहित अठारह हजार शील के भेदों की भावना निरन्तर भाने का उपदेश
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