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________________ क्रमांक विषय ८९. भावरहित के बाह्य परिग्रह की त्यागादि क्रिया निरर्थक है ९०. इन्द्रियादि को वश करने का और जनमनरंजन के लिए साधुवेश को ग्रहण न करने का उपदेश ९१. मिथ्यात्व व नोकषायवर्ग के त्याग की और चैत्य, प्रवचन व गुरु की भक्ति करने की प्रेरणा ९२. अतुल श्रुतज्ञान को निरन्तर विशुद्ध भाव से भाने की प्रेरणा ९३. ज्ञान सलिल से त ष्णा की दाह मिटाकर शिवालयवास की प्राप्ति ९४. काय योग से बाईस परीषहों को सहने का और ज्ञान योग से प्रमाद व असंयम के परिहार का साधु को उपदेश ९५. परिषहों को सहने में दढ़ हो तो उपसर्ग में भी साधु अचलित रहता है- पत्थर के समान ९६. भावरहित बाह्य वेष की अप्रयोजकता अतः बारह अनुप्रेक्षा और पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं को भाने का उपदेश ९७. सर्वविरत होकर ध्यान योग्य ध्येय-सात तत्त्व, नौ पदार्थ, जीवसमास व गुणस्थानों के चितवन का उपदेश । ९८. मैथुन संज्ञा की आसक्ति से भयानक संसार समुद्र में परिभ्रमण अतः ब्रह्मचर्य को धारण करने की प्रेरणा ९९. भावसहित आराधना चतुष्क को और भावरहित दीर्घ संसार में परिभ्रमण को पाता है १००. भावश्रमण के कल्याण परम्परापूर्वक सुखों का और द्रव्यश्रमण के नर, तिर्यंच व कुदेव योनि में दुःखों का लाभ १०१. अशुद्धभाव से दोषदूषित आहार करने से तिर्यच गति में महान कष्ट की प्राप्ति १०२. ग द्धि व दर्प से सचित भोजन - पान करने से तीव्र दुःखों का सहन १०३. गर्व से कन्दमूलादि सचित वस्तुओं के भक्षण के फल में अनंत संसार में भ्रमण पष्ठ ५-८ ५-६२ ५-६३ ५-६४ ५-६४ ५-६५ ५-६५ ५-६६ ५-६७ ५-६७ ५-६८ ५-६६ ५-१०० 4-909 ५-१०२ ५-१०२ १०४. त्रियोग से पंच प्रकार की विनय को पालन करने का उपदेश ५-१०३
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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