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क्रमांक
विषय
७२. जिनभावना रहित रागयुक्त द्रव्यलिंगी मुनि बोधि- समाधि को नहीं पाते
७३. पहले भाव शुद्ध करके फिर बाह्य मुनिपना प्रकट करने का उपदेश
७४. भावलिंगी स्वर्ग-मोक्ष सुख का भाजन व भाववर्जित श्रमण तिर्य च गति का भाजन
७५. विशुद्ध भाव से केवल चक्रवर्ती की लक्ष्मी का ही नहीं, बोधि का लाभ भी होता है
७६. भावों के अशुभ ७७. तीन प्रकार के का उपदेश
शुभ व शुद्ध ये तीन प्रकार और उनके लक्षण भावों में से श्रेयरूप भाव को अंगीकार करने
७८. जिनशासन का माहात्म्य - त्रिलोक श्रेष्ठ रत्नत्रय की प्राप्ति ७९. विषयविरक्त श्रमण ही सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर नामकर्म को बाँधता है
८०. तपश्चरण व क्रियादि सहित ज्ञान रूप अंकुश से मदोन्मत्त मन हस्ती को वश में करने का उपदेश
८१. द्रव्य-भाव रूप जिनलिंग का स्वरूप
८२. भाविभवमथन जिनधर्म की उदाहरणपूर्वक श्रेष्ठता
८३. पुण्य और धर्म की परिभाषाएँ
८४. पुण्य को ही धर्म जानकर श्रद्धान करने वालों के वह पुण्य केवल भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का नहीं
८५. आत्मा की आत्मा में लीनता ही संसार से तिरने का हेतु हैऐसा जिनेन्द्र ने कहा है
८६. जो आत्मा का तिरस्कार और पुण्य का सत्कार करता है वह संसारस्थ ही कहा गया है।
८७. मोक्ष प्राप्ति के लिए आत्मा का श्रद्धान और उसे प्रयत्नपूर्वक जानने का उपदेश
८८. बाह्य हिंसादि क्रिया बिना सिर्फ अशुद्ध भाव से तंदुल मत्स्य जैसा अल्प जीव भी सातवें नरक गया अतः जिनभावना को भाने का उपदेश
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