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क्रमांक विषय
पष्ठ १३७. चार प्रकार के मिथ्याद ष्टियों के भेदों का वर्णन
५-१३५ १३८. अभव्य जीव भली प्रकार जिनधर्म को सुनकर भी अपनी मिथ्याभाव रूप प्रकृति नहीं छोड़ता-सर्प के समान
५-१३७ १३९. मिथ्यात्व से आच्छादित द ष्टि वाले अभव्य को जिनप्रणीत धर्म नहीं रुचता
५-१३८ १४०. कुत्सित पाखंडि भक्ति, तप व धर्म में रत जीव कुगति का भाजन होता है
५-१३६ १४१. कुनय और कुशास्त्रों से मोहित जीव का अनंत संसार में भ्रमण होता है-ऐसा विचारने की प्रेरणा
५-१३६ १४२. तीन सौ तरेसठ पाखंडियों के मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में प्रवर्तने का उपदेश
५-१४० १४३. सम्यग्दर्शन रहित प्राणी चलशव है, शव लोक में अपूज्य हैचलशव लोकोत्तर मुनियों में अपूज्य है
५-१४१ १४४. मुनि और श्रावक-दो प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व वैसे ही
अधिक है जैसे ताराओं में चन्द्रमा व पशु कुल में सिंह ५-१४२ १४५. विमल दर्शनधारी जीव जिनप्रवचन में वैसे ही शोभायमान है
जैसे मध्य में रक्त माणिक्य युक्त सहस्त्र फण वाला धरणेन्द्र ५-१४२ १४६. जिनशासन में दर्शनविशुद्ध जिनलिंग, आकाश में तारागण सहित चन्द्रबिम्ब समान सुशोभित होता है
५-१४३ १४७. गुणरत्नों में सारभूत एवं मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यक्त्व रत्न को भावपूर्वक धारण करने का उपदेश
५-१४३ १४८. सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए जीव पदार्थ का कर्ता, भोक्ता आदि छह विशेषणों द्वारा स्वरूप निरूपण
५-१४४ १४९-१५०. जिनभावना युक्त जीव के चार घातिया कर्मों का नाश होकर अनन्त चतुष्टय प्रकट होता है।
५-१४६-१४७ १५१. अनंतचतुष्टयधारी परमात्मा के अनेक नामों में से शिव, परमेष्ठी आदि कुछ नामों का प्रकटीकरण
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