SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमांक विषय पष्ठ १६. अशुभभाव से अनेक बार कुदेवत्व की प्राप्ति ५-२६ १७. भावरहित होकर कुदेव योनि से चयकर अनेक माताओं के वीभत्स गर्भ में चिरकाल तक निवास ५-२६ १८. भावरहित अनंत जन्मों में अनेक माताओं का समुद्र जल से भी अधिक दूध पिया ५-३० १९. जन्म लेकर मरने पर अनेक जननीजनों के नयनों का नीर सागर जल से भी अधिक है। ५-३१ २०. अनंत भवसागर में काटकर छोड़े हुए केश, नख, नाल व अस्थि की राशि मेरु से भी अधिक है ५-३१ २१. अनात्मवश होकर त्रिभुवन में जल, स्थल, अग्नि, पर्वत आदि में सर्वत्र चिरकाल तक निवास ५-३२ २२. लोक में वर्तते सारे पुद्गलों का भक्षण भी अत प्तिकारक है। ५-३३ २३. तीन भुवन का जल भी त ष्णाछेदक नहीं अतः भव के नाश के लिए भाव को भाने की प्रेरणा ५-३३ २४. अनंत भवसागर में अपरिमित शरीर ग्रहण किये और छोड़े ५-३४ २५-२७. भाव के बिना तिर्यंच एवं मनुष्य जन्म में बहुत बार उपजकर विषादि द्वारा अपम त्यु के तीव्र महादुःख को प्राप्त हुआ ५-३४ २८-२९. भाव के बिना निगोदवास में एक अन्तर्मुहूर्त में छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण के दुःख ५-३६-३७ ३०. रत्नत्रय को पाये बिना दीर्घ संसार में भ्रमण अतः उसके आचरण करने की प्रेरणा ५-३८ ३१. निश्चय रत्नत्रय का स्वरूप निरूपण ५-३८ ३२. अनेक जन्मों में कुमरण मरण से मरा, अब सुमरण मरण को भाने का उपदेश ५-३६ ३३. भावलिंग बिना तीन लोक प्रमाण सर्व क्षेत्रों में जन्म-मरण का क्लेश भोगा ५-४३ ३४. भावरहित द्रव्यलिंग प्राप्त करके अनन्त काल पर्यन्त जन्म-जरा-मरण से पीड़ित हो दुःख ही पाया ५-४४
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy