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________________ क्रमांक विषय ३५. अनंत भवसागर में जीव ने पुद्गलों को बहुत बार ग्रहण किया और छोड़ा ३६. भाव के बिना समस्त लोक में यह जीव घूमा ३७. शरीर व्याधियों का मन्दिर है ३८. हे महायश ! परवश होकर उन समस्त व्याधियों का दुःख पूर्व भवों में तूने सहा है और सहेगा ३९-४०. अपवित्र गर्भवास में बहुत काल बसा, वहाँ माता के द्वारा खाये हुए भोजन के रस से पला ४१. गर्भ से निकलकर बालपने में अशुचि के बीच लोटा व अशुचि वस्तु ही खाई ४२. अत्यन्त दुर्गन्धमय इस देह कुटी का स्वरूप विचारकर इससे प्रीति छोड़ ४३. भाव विमुक्त ही मुक्त होता है, बांधवादि से मुक्त मुक्त नहीं होता ऐसा जानकर अभ्यंतर की वासना को छोड़ ४४. महंत पुरुषों के भी भाव की शुद्धि व अशुद्धि से सिद्धि की संभवता व असंभवता-कुछ दष्टान्त-प्रथम ही बाहुबलि का उदाहरण ४५. मधुपिंग मुनि निदानमात्र से भावश्रमणत्व को प्राप्त नहीं हुए ४६. अन्य भी वशिष्ठ मुनि ने निदान के दोष से दुःख ही दुःख पाया ४७. भावरहित जीव चौरासी लाख योनियों में घूमता है ४८. भावलिंग से ही लिंगी होता है, द्रव्यलिंग मात्र से कुछ साध्य नहीं ४९. जिनलिंगी भी बाहु मुनि अभ्यंतर के दोष से दुर्गति को प्राप्त हुए ५०. द्वीपायन नामक द्रव्यश्रमण रत्नत्रय से भ्रष्ट होकर अनंत संसारी हुए ५१. विशुद्धमति शिवकुमार नामक भावश्रमण परीत संसारी हुए ५-५ पष्ठ ५-४५ ५-४६ ५-४७ ५-४८ ५-४८-४६ ५-४६ ५-५० ५-५१ ५-५१ ५-पूर ५-५३ ५-५५ ५-५६ ५-५७ ५-५६ ५-६०
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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