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________________ D अष्ट पाहुड़stion स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द bot ASHOCC OCE TOVAVALYAN Dool 100 SAPTARAMAR Lal DOG WV WI WAS Dod उत्तरगुण की क्रिया आचार्य के समान ही होती है। साधु-साधु हैं सो रत्नत्रयात्मक मोक्ष का जो मार्ग है उसको साधते हैं। उनके दीक्षा, शिक्षा एवं उपदेशादि देने की प्रधानता नहीं है, अपने स्वरूप के साधने में ही तत्परता होती है-निग्रंथ दिगम्बर मुनि की जैसी प्रव त्ति का जिनागम में वर्णन है वैसी सब ही उनके होती है, ऐसे साधु गुरु वंदन के योग्य हैं। अन्य लिंगी-वेषी, व्रतादि से रहित, परिग्रहवान और विषय-कषायों में आसक्त जो गुरु नाम रखवाते हैं वे वंदन के योग्य नहीं हैं। इस पंचमकाल में वेषी जैनमत में भी हुए हैं वे श्वेताम्बर हैं, यापनीय संघ हुआ है, गोपुच्छपिच्छ संघ हुआ है, नि:पिच्छ संघ हुआ है एवं द्राविड़ संघ है सो ये सब 崇崇养崇崇崇崇崇崇崇明藥藥事業業帶男崇勇勇崇 टि०- 1. श्रु० टी०' में इन पांच संघों को जैनाभास कहते हुए इनकी इस प्रकार विवेचना की है : १. श्वेताम्बर-ये सब जगह प्रासुक भोजन ग्रहण करते हैं। मांसभक्षियों के घर में भी भोजन करने में दोष नहीं है'-ऐसा कहकर इन्होंने वर्ण व्यवस्था का लोप किया है। इनके आचार-विचार की शुद्धि नहीं है। इन्हीं में श्वेताम्बराभास उत्पन्न हुए हैं जो देवपूजा आदि को पापकर्म कहने के कारण अत्यन्त पापिष्ठ हैं। श्वेताम्बरों के सम्यगी, मन्दिरमार्गी, बाईसटोला, तेरहपंथी आदि भेद हैं। २. यापनीय संघ-ये खच्चरों के समान दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों को मानते हैं, रत्नत्रय को पूजते हैं, कल्पश्रुत को पढ़ते हैं, स्त्रियों को उसी भव से मोक्ष एवं केवलिजिनों को कवलाहार मानते हैं एवं अन्य मत में परिग्रही को भी मोक्ष होता है-ऐसा कहते हैं। ३. गोपुच्छपिच्छ संघ-विनयसेन के द्वारा दीक्षित कुमारसेन मुनिराज ने मयूर पिच्छिका का त्याग कर चमरी गाय के पूंछ के बालों की पीछी को ग्रहण कर सारे बागड़ प्रान्त में उन्मार्ग का प्रचार-प्रसार किया था। ये स्त्रियों को पुनर्दीक्षा एवं क्षुल्लक के लिए वीरचर्या का विधान करते हैं और शरीर के अधोभाग के केशों का लुंचन करने को छठा गुणव्रत मानते हैं। ४ नि:पिच्छ संघ-इस संघ के संचालक प्रधान गुरु रामसेन थे। उन्होंने मयूरपंख की पिच्छिका का निषेध करके नि:पिच्छ रहने का उपदेश दिया था। उन्होंने स्व एवं पर प्रतिष्ठित जिनबिम्बों की ममत्व बुद्धि के द्वारा न्यून अधिक भावों से पूजा वन्दना करने का; 'यही मेरा गुरु है, दूसरा नहीं'-ऐसे भाव रखने का एवं अपने गुरुकुल का अभिमान और दूसरे गुरुकुल का मानभंग करना आदि का आदेश देकर विपरीत धर्म की स्थापना की थी। ५. द्राविड़ संघ-ये कहते हैं-बीजों में जीव नहीं हैं, खड़े होकर भोजन करना योग्य नहीं है, कोई भी वस्तु प्रासुक नहीं है, सावद्य अर्थात् पापपूर्ण क्रिया के त्याग में धर्म नहीं है, ग हकार्य में जो आर्तध्यान होता है वह गिना नहीं जाता अर्थात् उसका निराकरण हो जाता है आदि-आदि।' द्राविड़ संघ के अनुयायी साधु व्यापार-वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हैं और शीतल जल में स्नान करके प्रचुर पाप का उपार्जन करते हैं। 虽崇勇兼業助業業助聽聽聽聽業事業業業助業 樂%养添馬添养業樂業男崇榮樂樂事業事業擺第崇勇攀事業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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