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अष्ट पाहुड़ati
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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ही वंदन के योग्य नहीं हैं। मूलसंघ नग्न दिगम्बर अट्ठाईस मूलगुणों के धारक मयूरपिच्छ व कमंडलु-इन दया के एवं शौच के उपकरणों को धारण किए हुए तथा यथोक्त विधि से आहार करने वाले गुरु वंदन के योग्य हैं क्योंकि तीर्थंकर देव जब दीक्षा धारण करते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं, अन्य वेष नहीं धारण करते-इसी को जिनदर्शन कहते हैं।
धर्म का स्वरूप-धर्म उसे कहते हैं जो जीव को संसार के दुःख रूप नीचे पद से मोक्ष के सुख रुप ऊँचे पद में धारे। ऐसा धर्म मुनि और श्रावक के भेद से, दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक और एकदेश-सर्वदेश रूप निश्चय-व्यवहार से दो प्रकार का कहा है। उसका मूल सम्यग्दर्शन है जिसके बिना धर्म की उत्पत्ति नहीं होती।
इस प्रकार देव, गुरु, धर्म और लोक में यथार्थ द ष्टि हो और मूढ़ता न हो सो अमूढ़द ष्टि अंग होता है।
(५) उपबहण अंग-अपनी आत्मा की शक्ति को बढ़ाना सो उपबहण अंग है सो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को अपने पौरुष से बढ़ाना सो ही उपबहण है, इसको उपगूहन भी कहते हैं।
(६) स्थितिकरण अंग-धर्म से जो च्युत होता हो उसे उसमें द ढ़ करना सो स्थितिकरण अंग है सो यदि स्वयं कर्म के उदय के वश से कदाचित् श्रद्धान से तथा क्रिया आचार से च्युत होता हो तो अपने को फिर पुरुषार्थ से श्रद्धा एवं चारित्र में दढ़ करना तथा वैसे ही अन्य कोई धर्मात्मा यदि धर्म से च्युत होता हो तो उसे उपदेशादि के द्वारा धर्म में स्थापित करना-ऐसे स्थितिकरण अंग होता है।
(७) वात्सल्य अंग–अरहंत, सिद्ध तथा उनके बिम्ब एवं चैत्यालय तथा चतुर्विध संघ तथा शास्त्र-इनमें जैसे स्वामी का नौकर दास होता है वैसे दासत्व हो सो वात्सल्य अंग है। धर्म के स्थानों पर यदि उपसर्गादि आए तो उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार दूर करे, अपनी शक्ति को छिपाए नहीं सो ऐसा वात्सल्य धर्म से अति प्रीति होने पर होता है।
टि-1.पं० जयचंद जी की मूल प्रति' में नहीं है परन्तु 'मु० प्रति' में इस स्थल पर यह पंक्ति और
मिलती है-तहां ऐसा अर्थ जाननां-जो स्वयंसिद्ध जिनमार्ग है ताकै बालकके तथा असमर्थ जनके आश्रयतें जो न्यूनता होय, ताकू अपनी बुद्धि” गोप्य करि (छिपाकर) दूरि ही करै सो उपगूहन अंग है।'
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ता .१-१६