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ध्यान के योग्य मोक्षमार्ग का लक्ष्य जो शुद्धात्मा है वह ज्ञान से ही पाया जाता है इसलिए ज्ञान को जानना चाहिये ।।४।। गाथा २१-'जह णवि.... अर्थ-जैसे धनुष के अभ्यास से रहित बाणविहीन पुरुष लक्ष्य को नहीं पाता वैसे ज्ञान रहित अज्ञानी मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म-स्वरूप को नहीं पाता।।५।। गा० २२-'णाणं पुरिसस्स....' अर्थ-ज्ञान पुरुष के होता है और पुरुष ही विनयसंयुक्त हो तो ज्ञान को पाता है और उस ज्ञान ही से मोक्षमार्ग के लक्ष्य परमात्म-स्वरूप का ध्यान करता हुआ उस लक्ष्य को पाता है।।६।। गा० २७-'जं णिम्मलं..... अर्थ-यदि शान्त भाव से निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान धारण किये जायें तो जिनमार्ग में ये ही तीर्थ हैं।।७।। गा० ४9-"णिग्गंथा....' अर्थ-जो परिग्रह से, स्त्री आदि परद्रव्यों के । संसर्ग से, मान से, भोगों की आशा से, राग से, द्वेष से, ममता से तथा अहंकार से रहित है-ऐसी जिनदीक्षा कही है।।8।। गा० ५०-'णिण्णेहा.... अर्थ-जो स्नेहरहित, लोभरहित, मोहरहित, विकाररहित, कलुषता रहित, भयरहित तथा आशा के भावों से रहित
है-ऐसी जिनदीक्षा कही है।।9।। लगा० ५१–'जहजायरूवसरिसा....' अर्थ-जिसमें सद्योजात बालक के
समान नग्न रूप है, लम्बायमान भुजाएँ हैं, जो शस्त्ररहित है, शान्त है तथा जिसमें दूसरे के द्वारा बनाई गई वसतिका में निवास किया जाता है-ऐसी प्रव्रज्या कही है।।१०।। गा० ५२-'उवसमखमदमजुत्ता....' अर्थ-जो उपशम, क्षमा और इन्द्रियदमन से युक्त है, शरीर के संवारने से रहित है, रूक्ष है तथा
मद, राग व द्वेष से रहित है-ऐसी प्रव्रज्या कही है।।११।। लगा० ६१–'सद्दवियारो हूओ ' अर्थ-शब्द के विकार से उत्पन्न हुए
भाषासूत्रों में जैसा जिनदेव ने कहा सो ही भद्रबाहु आचार्य के शिष्य ने जाना, सो ही अर्थ आचार्य कहते हैं कि हमने यहाँ कहा है।।१२।।
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