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बासठ गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड़ द्वारा कुंदकुंद आचार्य देव ने धर्म के आश्रय-आयतन, चैत्यग ह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अरहंत और प्रव्रज्या-इन ग्यारह स्थानों का सच्चा स्वरूप जैसा जिनदेव ने कहा है उसके अनुसार कहा है जो कि छह काय के जीवों को सुख व हित का करने वाला है। इस पाहुड़ में पं० जयचंद जी कहते हैं कि अनादि से ही जीव मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन करके संसार में भ्रमण कर रहा है और दुःख ही दुःख पा रहा है, उस दुःख को मिटाने को वह आयतन आदि इन ग्यारह स्थानों का आश्रय लेता है पर धर्ममार्ग में कालदोष से अनेक मतों का प्रसार हआ और जैनमत में भी भेद-प्रभेद हो गए, सो इन ग्यारह स्थानों के स्वरूप में भी विपरीतता हुई, सो लोग इनका सच्चा स्वरूप तो जानते नहीं और जैसी बाह्य में प्रव त्ति देखते हैं उसमें लगकर प्रव त्ति करने लग जाते हैं पर यथार्थ में प्रव त्ति किए बिना सुख कैसे मिले, अतः आचार्य देव ने दयालु होकर सच्चे स्वरूप से युक्त उनमें भव्य जीवों की प्रव त्ति कराने के लिए उनका सच्चा निरूपण किया है।
वे ग्यारह ही स्थान आचार्य देव ने संयमी मुनि और अरहंत, सिद्ध ही के कहे हैं। संयमी मुनि को ही आयतन व चैत्यग ह कहा; फिर प्रतिमा के प्रकरण में जंगम प्रतिमा निर्ग्रन्थ वीतराग मुनि की कही और थिर प्रतिमा सिद्धों की कही; मनि के रूप को ही दर्शन कहा; आचार्य को जिन का प्रतिबिम्ब व जिनमुद्रा बताया; फिर ज्ञान, देव व तीर्थ का वर्णन करके और चौदह गाथाओं में नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण-पर्याय सहित च्यवन, आगति व संपदा-इन भावों से अरहंत के स्वरूप का निरूपण करके अठारह गाथाओं में प्रव्रज्या का सविस्तार वर्णन किया है। सो इस प्रकार जैसा भी उनका स्वरूप आचार्य देव ने इस पाहुड़ में कहा और बाह्य में व्यवहार भी उस स्वरूप के ही एकदम अनुरूप कहा उसे यथावत् जानकर भव्य जीवों को उनका श्रद्धान और उनमें प्रव त्ति करनी चाहिए।
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