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अष्ट पाहुड़
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वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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उपजावे!' __ उसको कहते हैं-जो तू ऐसा कहता है सो तुझे परिणामों की तो पहचान नहीं है, केवल बाह्य क्रिया मात्र ही में तू पुण्य समझता है, बाह्य बहुत आरम्भी-परिग्रही का मन सामायिक एवं प्रतिक्रमण आदि निरारम्भ कार्यों में विशेष लगता नहीं है-यह अनुभवगोचर है सो तुझे अपने भावों का अनुभव नहीं है। केवल बाह्य सामायिकादि निरारम्भ कार्य का वेष धारण करके बैठे तो कुछ विशेष पुण्य है नहीं। शरीरादि बाह्य वस्तु तो जड़ हैं, केवल जड़ की क्रिया का फल तो आत्मा को लगता नहीं, अपना भाव जितने अंश में बाह्य क्रिया में लगता है उतने अंश में शुभाशुभ फल अपने को लगता है-इस प्रकार विशेष पुण्य तो भावों के अनुसार होता है और बहुत आरम्भी-परिग्रही का भाव तो पूजा-प्रतिष्ठादि के बड़े आरम्भ में ही विशेष अनुराग सहित लगता है और जो ग हस्थाचार के बड़े आरम्भ से विरक्त होगा वह त्याग करके अपनी पदवी बढ़ाएगा, तब ग हस्थाचार के बड़े आरम्भ छोड़ेगा और इस ही रीति से धर्म प्रव त्ति के भी बड़े आरम्भ पदवी के अनुसार घटायेगा, मुनि होगा तो सारे ही आरम्भ क्यों करेगा इसलिये मिथ्याद ष्टि बहिर्बुद्धि जो बाह्य कार्यमात्र ही पुण्य, पाप एवं मोक्षमार्ग समझते हैं उनका उपदेश सुनकर अपने को अज्ञानी नहीं होना।
पुण्य-पाप के बंध में भाव ही प्रधान है और पुण्य-पाप से रहित मोक्ष का मार्ग है उसमें सम्यग्दर्शनादि रूप आत्म-परिणाम प्रधान हैं तथा धर्मानुराग है सो मोक्षमार्ग का सहकारी है पर धर्मानुराग के तीव्र मंद के भेद बहुत हैं इसलिये अपने भावों को यथार्थ पहचानकर, अपनी पदवी की सामर्थ्य विचारकर श्रद्धान, ज्ञान एवं प्रव त्ति करना। अपना बुरा-भला अपने भावों के आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो निमित्त मात्र है। उपादान कारण हो तो निमित्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निमित्त कुछ भी नहीं करता-ऐसा इस बोधपाहड़ का आशय जानना।
इसको भली प्रकार समझकर आयतनादि जैसे कहे वैसे और इनका व्यवहार भी बाह्य मे वैसा ही और चैत्यग ह, प्रतिमा, जिनबिम्ब एवं जिनमुद्रा आदि धातु-पाषाणदि का भी व्यवहार वैसा ही जानकर श्रद्धान करना और प्रव त्ति करना। अन्यमती
इनका अनेक प्रकार स्वरूप बिगाड़कर प्रव त्ति करते हैं उनको बुद्धिकल्पित जानकर 先崇崇崇明崇崇崇 --%屬崇明崇崇崇明崇站業
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