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________________ अष्ट पाहुड़attrate वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द BS Dod Dog/ Dooo HDod ADeole उनकी उपासना नहीं करना। इस व्यवहार का प्ररूपण प्रव्रज्या के स्थल में आदि से दूसरी गाथा में ऐसा कहा है कि 'वच-चैत्य-आलय का त्रिक और जिनभवन-ये भी मुनियों के ध्याने योग्य हैं' सो ग हस्थ इनकी प्रव त्ति करते हैं तब ही तो ये मुनियों के ध्याने योग्य होते हैं अतः जिनमन्दिर, प्रतिमा एवं पूजा–प्रतिष्ठा आदि का सर्वथा निषेध करने वाले सर्वथा एकांती की तरह मिथ्याद ष्टि हैं, उनकी संगति नहीं करना।।६०।। उत्थानिका । 听听听听听听听听听業繼听听听听听听器巩業 आगे आचार्य इस बोधपाहुड़ का वर्णन अपनी बुद्धिकल्पित नहीं है किन्तु पूर्वाचार्यों के अनुसार कहा है-ऐसा कहते हैं :सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। ६१।। शाब्दिक विकार से हुए भाषासूत्र में जो जिन कहा। सो भद्रबाह शिष्य जाना, वही मैंने है कहा।।६१।। अर्थ शब्द के विकार से उत्पन्न हुए ऐसे अक्षर रूप परिणमित भाषासूत्रों में जिनदेव ने जो कहा सो ही भद्रबाहु आचार्य के शिष्य ने जाना और वैसा ही कहा है। भावार्थ श्री वर्द्धमान तीर्थंकर परम भट्टारक की दिव्यध्वनि से शब्द हुए सो गौतम गणधर के श्रवण में अक्षर रूप आये तथा जैसा जिनदेव ने कहा वैसा ही परम्परा से भद्रबाहु नामक पंचम श्रुतकेवली ने जाना और अपने शिष्य विशाखाचार्य आदि को कहा सो उन्होंने जाना और वह ही अर्थ रूप विशाखाचार्य की परम्परा से चला आया सो ही अर्थ आचार्य कहते हैं कि हमने कहा है, अपनी बुद्धि से कल्पित नहीं कहा है-ऐसा अभिप्राय है।।६१।। 崇先养养崇崇崇崇崇明崇崇勇禁藥勇禁藥事業蒸蒸男崇勇 टि0-1. विखाचार्य' मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षाकाल में दिया हुआ नाम है। 先崇崇崇明崇崇明崇明-%屬崇明崇崇崇崇崇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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