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________________ 卐業卐糕卐業業卐業業卐業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित प्रतिमा देखने वालों के शांत भाव होते हैं, ध्यान की मुद्रा का स्वरूप जाना जाता है एवं वीतराग धर्म से अनुराग विशेष होने से पुण्य का बंध होता है इसलिये इनको भी छह काय के जीवों का हित करने वाले उपचार से कहा जाता है और जिनमन्दिर, वसतिका एवं प्रतिमा बनवाने में तथा पूजा-प्रतिष्ठा करवाने में आरम्भ होता है जिसमें कुछ हिंसा भी होती है परन्तु ऐसा आरम्भ तो ग हस्थ का कार्य है, इसमें ग हस्थ को अल्प पाप कहा है और पुण्य बहुत कहा है क्योंकि ग हस्थ की पदवी में तो मिथ्यात्व, चोरी आदि अन्याय कार्य और मांसादि अभक्ष्य के खाने को महापाप कहा है। ग हस्थ की पदवी में न्याय कार्य करना, न्यायपूर्वक धन उपार्जन करना, रहने को स्थान बनवाना, विवाहादि करना तथा यत्नपूर्वक आरम्भ करके आहारादि स्वयं बनाना और खाना इत्यादि कार्यों में यद्यपि कुछ हिंसा भी होती है तो भी ग को इनका महापाप नहीं कहा जाता । ग हस्थ के तो महापाप मिथ्यात्व का सेवन करना, अन्याय - चोरी आदि करके धन कमाना, त्रस जीवों को मारकर मांस आदि अभक्ष्य खाना और परस्त्री का सेवन करना आदि हैं। और ग हस्थाचार छोड़कर जब मुनि हो तब ग हस्थ के न्यायकार्य और आरम्भ करके आहार बनवाना आदि मुनि के महापाप हैं क्योंकि मुनि की पदवी में ये कार्य भी अन्याय ही हैं। और मुनि के भी आहार-विहार आदि की प्रवत्ति में कुछ हिंसा होती है परन्तु उससे मुनि को हिंसक नहीं कहा जाता वैसे ही ग हस्थ के न्यायपूर्वक अपने पद के योग्य आरम्भ के कार्यों में अल्प पाप ही कहा जाता | अतः जिनमन्दिर, वसतिका, पूजा एवं प्रतिष्ठा के कार्यों में आरम्भ का अल्प पाप है तथा मोक्षमार्ग से एवं मोक्षमार्ग में प्रवर्तन करने वालों से अति अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करता है, उनको आहार- दानादि देता है और उनकी वैयावत्ति करता है सो यह सम्यक्त्व का अंग है और महान पुण्य का कारण है इसलिये ग हस्थों को सदा करना उचित है और ग हस्थ होकर ये कार्य न करे तो जाना जाता है कि इसके धर्मानुराग विशेष नहीं है । यहाँ फिर कोई कहता है- 'ग हस्थाचार के कार्य बिना तो ग हस्थ को सरता नहीं इसलिए उन्हें तो वह करे ही करे परन्तु धर्मपद्धति में बड़े आरम्भ के कार्य करके पाप क्यों मिलावे, सामायिक, प्रतिक्रमण एवं प्रोषध आदि करके पुण्य ही ४-५६ 卐卐卐糕糕 卐卐糕糕 卐卐卐業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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