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________________ *業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित स्वरूप मोक्ष को प्राप्त होओ-ऐसा आचार्य के कहने का अभिप्राय है । है? यहाँ कोई पूछता है- इस बोधपाहुड़ में धर्म व्यवहार की प्रवत्ति के ग्यारह स्थान कहे और उनका विशेषण किया कि ये छह काय के जीवों का हित करने वाले हैं सो अन्यमती इनका अन्यथा स्थापन करके प्रवत्ति करते हैं सो तो हिंसा रूप हैं और जीवों के हित करने वाले नहीं हैं, यहाँ पाहुड़ में ये ग्यारह ही स्थान संयमी मुनि और अरहंत सिद्ध ही को कहे सो ये तो छह काय के जीवों के हित करने वाले हैं ही इसलिये पूज्य हैं - यह तो सत्य है परन्तु ये जहाँ बसते हैं ऐसे आकाश के प्रदेश रूप क्षेत्र तथा पर्वत की गुफा -वनादि तथा अक त्रिम चैत्यालय जो स्वयमेव बने हुए उनको भी प्रयोजन और निमित्त विचारकर उपचार मात्र से छह काय के जीवों का हित करने वाले कहें तो उसमें भी विरोध नहीं हैं। यद्यपि ये प्रदेश जड़ हैं, ये बुद्धिपूर्वक किसी का बुरा-भला नहीं करते तथा जड़ को सुख-दुःख आदि फल का अनुभव नहीं होता तथापि ये भी व्यवहार से पूज्य हैं क्योंकि अरहंतादि जहाँ तिष्ठते है वे क्षेत्र, निवास आदि प्रशस्त हैं अतः उन अरहंतादि के आश्रय से वे क्षेत्रादि भी पूज्य हैं परन्तु ग हस्थ जो जिनमन्दिर बनाता है, वसतिका व प्रतिमा बनाता है ओर उनकी प्रतिष्ठा - पूजा करता है उसमें तो छह काय के जीवों की विराधना होती है सो इस उपदेश और प्रवत्ति की बहुलता कैसे उसका समाधान ऐसा है - १. ग हस्थ अरहंत, सिद्ध एवं मुनियों का उपासक है सो जहाँ ये साक्षात् होते हैं वहाँ तो वह इनका वंदन-पूजन करता ही है परन्तु जहाँ ये साक्षात् नहीं होते वहाँ परोक्ष संकल्प में लेकर वंदन-पूजन करता है तथा उनके बसने के क्षेत्र और वे जहाँ से मुक्ति को प्राप्त हुए उन क्षेत्रों में तथा अक त्रिम चैत्यालय में उनका संकल्प करके वंदता - पूजता है इसमें अनुराग विशेष सूचित होता है तथा २. उनकी मुद्रा की प्रतिमा तदाकार बनवाता है और उसको मंदिर बनवाके प्रतिष्ठा करवाकर वहाँ स्थापित करता है तथा नित्य पूजन करता है जिसमें अत्यंत अनुराग सूचित होता है तथा उस अनुराग से विशिष्ट पुण्य का बंध होता है और ३. उस मन्दिर में छह काय के जीवों के हित का तथा रक्षा का उपदेश होता है तथा वहाँ निरन्तर सुनने वालों तथा धारण करने वालों के अहिंसा धर्म की श्रद्धा दढ़ होती है तथा ४. उनकी तदाकार ४-५८ 卐業卐糕糕糕 卐 卐卐卐卐業業卐*
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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