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.अष्ट पाहड
वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे बोधपाहुड़ के कथन को संकोचते हुए आचार्य कहते हैं :रूवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्कायहिदंकरं उत्तं ।। ६०।। रूपस्थ व शुद्धार्थ पथ, जिनमग में जिनवर ज्यों कहा। षट्कायहितकर भव्यजन, बोधार्थ त्यों मैंने कहा ।।६० ।।
अर्थ शुद्ध है अन्तरंग भाव रूप अर्थ जिसमें ऐसा 'रूपस्थ' अर्थात् बाह्य स्वरूप मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्ग में जिनवर देव ने कहा है वैसा छह काय के जीवों का हित करने वाला मार्ग भव्य जीवों को सम्बोधने के लिए मैंने कहा है-ऐसा आचार्य ने अपना अभिप्राय प्रकट किया है।
भावार्थ इस बोधपाहुड़ में आयतन आदि प्रव्रज्या पर्यन्त ग्यारह स्थल कहे, उनका बाह्य-अन्तरंग स्वरूप जैसा जिनदेव ने जिनमार्ग में कहा है वैसा कहा। कैसा है वह रूप-छह काय के जीवों का हित करने वाला है। एकेन्द्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवों की तो रक्षा का जिसमें अधिकार है तथा सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा भी कराता है और उन्हें मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसार का दुःख मेट कर मोक्ष को भी प्राप्त कराता है-ऐसा मार्ग भव्य जीवों को सम्बोधने के लिए कहा है।
जगत के प्राणी अनादि से लगाकर मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन कर संसार में भ्रमण करते हैं सो दुःख मिटाने को आयतन आदि ग्यारह स्थान-धर्म के ठिकानों का आश्रय लेते हैं, वे उन ठिकानों का अन्यथा स्वरूप स्थापित करके उनसे सुख लेना चाहते हैं किन्तु यथार्थ के बिना सुख कहाँ ! अतः आचार्य ने दयालु होकर जैसा सर्वज्ञ ने कहा वैसा आयतन आदि का स्वरूप संक्षेप से यथार्थ कहा है, इसको बाँचो, पढ़ो, धारण करो, इनकी श्रद्धा करो और इन रूप प्रवर्तन करो जिससे वर्तमान में सुखी रहो और आगामी संसार दुःख से छूटकर परमानन्द
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