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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च अच्छेइ ।
सिलकट्टे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ।। ५६ । उपसर्ग अरु परिषह सहें, निर्जनप्रदेश में नित रहें ।
स्वामी विरचित
सर्वत्र आरोहण करें भूतल, शिला अरु काष्ठ पर । । ५६ ।।
अर्थ
पुनः कैसी है प्रव्रज्या - उपसर्ग' अर्थात् देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन क उपद्रव तथा 'परिषह' अर्थात् दैव-कर्म योग से आये जो बाईस उनको समभाव से सहना है जिसमें ऐसी प्रव्रज्या सहित मुनि हैं वे जहाँ अन्य जन नहीं हैं ऐसे निर्जन
वन आदि जो प्रदेश वहाँ सदा तिष्ठते हैं और वहाँ भी शिलातल, काष्ठ और भूमितल
में स्थित होते हैं, इन सारे ही प्रदेशों का आरोहण करते हैं, उनमें बैठते हैं, सोते हैं,
सर्वत्र कहने से यदि वन में रहें तो और कुछ काल नगर में रहें तो ऐसे ही स्थानों पर रहते हैं
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भावार्थ
जैन दीक्षा वाले मुनि उपसर्ग और परिषहों में समभाव से रहते हैं और निर्जन
प्रदेश में जहाँ सोते और बैठते हैं वहाँ शिला, काष्ठ और भूमि ही में बैठते-सोते
हैं, ऐसा नहीं है कि अन्यमत के वेषी के समान स्वच्छंद प्रमादी रहते हों-ऐसा जानना । । ५६ ।
उत्थानिका
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आगे अन्य विशेष कहते हैं :
पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ ।
सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया । । ५७ ।।
नारी, नपुसंक, पशु, कुशील, का संग नहिं, विकथा न हो।
स्वाध्याय-ध्यान से युक्त होवे, प्रव्रज्या ऐसी कही । । ५७ ।।
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