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________________ *業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ जिस प्रव्रज्या में पशु - तिर्यंच, महिला - स्त्री एवं षंढ - नपुंसक इनका तथा कुशील-व्यभिचारी पुरुषों का संग नहीं किया जाता तथा स्त्री, राज, भोजन और चोर इत्यादि की कथा जो विकथा उनको नही किया जाता, तो क्या करते हैं ! स्वाध्याय अर्थात् शास्त्र- जिनवचनों का पठन-पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म, शुक्ल ध्यान - इनसे युक्त रहते हैं, प्रव्रज्या ऐसी जिनदेव ने कही है। भावार्थ जैन दीक्षा लेकर कुसंगति करे, विकथादि से प्रमादी रहे तो दीक्षा का अभाव हो जाये इसलिए कुसंगति निषिद्ध है। अन्य वेष के समान यह वेष नहीं है, यह मोक्ष का मार्ग है, अन्य संसार मार्ग हैं । । ५७ ।। | उत्थानिका आगे फिर विशेष कहते हैं : तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ५8 ।। सम्यक्त्व संयम गुण तथा, तप व्रत गुणों से शुद्ध जो । दीक्षा गुणों से शुद्ध होती, प्रव्रज्या ऐसी कही । । ५8 ।। अर्थ प्रव्रज्या जिनदेव ने ऐसी कही है। 'कैसी है' - 'तप' अर्थात् बाह्य - अभ्यंतर बारह प्रकार, अव्रत अर्थात् पाँच महाव्रत और गुण अर्थात् इनके भेद रूप उत्तरगुण उनसे शुद्ध है। और कैसी है- 'संयम' अर्थात् इन्द्रिय- मन का निरोध एवं षट्काय के जीवों की रक्षा, 'सम्यक्त्व' अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण निश्चय - व्यवहार रूप सम्यग्दर्शन तथा इनका 'गुण' अर्थात् मूलगुण और उत्तरगुण उनसे शुद्ध - अतिचार रहित निर्मल है। और कैसी है- जो प्रव्रज्या के गुण कहे उनसे शुद्ध है, वेष मात्र 卐卐糕糕糕 ही नहीं है-ऐसी शुद्ध प्रव्रज्या कही है, इन गुणों के बिना प्रव्रज्या शुद्ध नहीं है । ४-५५ 卐 卐糕糕糕糕
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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