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________________ अष्ट पाहु अष्ट पाहुड़attrate । स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द Doole Dool DOO ADOO अर्थ 添添添添添樂業先养养事業藥勇勇兼事業事業事業 पुनः कैसी है प्रव्रज्या-निर्ग्रन्थस्वरूप है, परिग्रह से रहित है। और कैसी है-निःसंग अर्थात् स्त्री आदि परद्रव्य का मिलाप जिसमें नहीं है। और कैसी है-निर्माना अर्थात् मानकषाय जिसमें नहीं है, मद से रहित है। और कैसी है-निराश है अर्थात् आशा जिसमें नहीं हैं, संसार-शरीर-भोगों की आशा से रहित है। और कैसी है-'अराय' अर्थात् राग का जिसमें अभाव है, संसार-शरीर-भोगों से प्रीति जिसमें नहीं है। और कैसी है-निढेष है, किसी से द्वेष जिसमें नहीं है। और कैसी है-'निर्ममा' अर्थात् जिसमें किसी से ममत्व भाव नहीं है। और कैसी है-निरहंकारा अर्थात् अहंकार से रहित है, जो कुछ कर्म का उदय हो सो होता है-ऐसा जानने से जिसमें परद्रव्य के कर्तापने का अहंकार नहीं है और अपने स्वरूप ही का साधन है। ऐसी प्रव्रज्या कही है। भावार्थ अन्यमती कोई वेष पहनकर उस मात्र को दीक्षा मानते हैं सो दीक्षा नहीं है, जैन दीक्षा ऐसी कही है।।89।। 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業 उत्थानिका । आगे फिर कहते हैं :णिण्णेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिब्वियार णिक्कलुसा। णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५०।। निःस्नेह है, निर्मोह है, है कलुष तथा विकार बिन। आशारहित, निर्लोभ, निर्भय, प्रव्रज्या ऐसी कही।।५० ।। अर्थ पुनः प्रव्रज्या ऐसी कही है। 崇崇明業崇崇明崇明慧 崇明崇明崇明崇明崇崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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