SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्ट पाहुड़ ate-site स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द ..... 09 Doo||* HDod lot •load णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिद्दोसा। णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया' ।। ४9।। नहिं मान, आशा, राग-द्वेष, निःसंग हो, निग्रंथ हो। निर्ममता, निरहंकारिता हो, प्रव्रज्या ऐसी कही।।४9।। रूप में व्याख्या हित हो अथवा का ज्ञाता होभनीय अंगों 業業業業業業巩業巩巩巩巩業巩業呢業業業宝業業% टि0-1. 'श्रु0 टी0' में इस गाथा में आए हुए प्रव्रज्या के निर्ग्रथ, निस्संग व निरहंकार' विषणों की इस रूप में व्याख्या की है :1. निर्ग्रन्था-जो परिग्रह से रहित हो अथवा नि:' यानि अतियपूर्ण, ग्रंथों से सहित हो अर्थात् प्रव्रज्या का धारी जिनेन्द्र प्ररूपित स्त्र का ज्ञाता हो। 2.निस्संगा-जो स्त्र आदि संग से रहित हो अथवा निचित भनीय अंगों-द्वादांगों से सहित हो अर्थात् जिसमें द्वादांगों का पठन-पाठन होता हो अथवा रीर के निचित आठ अंगों और उपांगों से सहित हो। दो हाथ, दो पैर, नितम्ब, पीठ, वक्षस्थल और रि-ये आठ अंग होते हैं और अगुंली, आँख, नाक आदि उपांग होते हैं। प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले का रीर अंग-उपांग से सहित होना चाहिए, विकल नहीं। कुरूपी, हीनांग, अधिकांग और कुष्ठादि रोग से युक्त मनुष्य को दीक्षा नहीं दी जाती। 3.निरहंकारा-जिन दीक्षा अहंकार से रहित अर्थात् कर्मोदय प्रधान होती है। जीवों को सुख-दु:ख अपने-अपने कर्मों के उदय से होता है इसलिए मैंने यह किया, वह किया'-ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए। जैसा कि तार्किक सिरोमणि 'श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है-'अन्तरंग और बहिरंग उपादान और निमित्त-दोनों कारणों की अनुकूलता से उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता-होनहार अलंघ्यक्ति है-इसकी सामर्थ्य को कोई लांघ नहीं सकता। भवितव्यता की अपेक्षा न करके मात्र पुरुषार्थ की अपेक्षा रखने वाला अहंकार से पीड़ित मानव अनेक मंत्र-तंत्रदि सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुख-दुःखादि कार्यों को करने में असमर्थ रहता है अर्थात् जब तक जिस कार्य की भवितव्यता नहीं आ पहुँची तब तक यह प्राणी अकेला नहीं, अनेक कारणों के साथ मिलकर भी कार्य नहीं कर पाता। हे भगवन् ! ऐसा आपने ठीक ही कहा है।' अथवा निरहंकारात्-निरहं+कारात् (क+आरात्)। निरह-निरघं-निष्पापं अर्थात् सर्व सावध योग से रहित जिनदीक्षा होती है और 'क' अर्थात् 'द्ध बुद्ध एकस्वभाव निजात्मस्वरूप, उसके आरात्' अर्थात् समीप जो वर्ते वह जिनदीक्षा होती है। चिच्चमत्कार लक्षण ज्ञायक एकस्वभाव टंकोत्कीर्ण निज आत्मा में तल्लीनता ही प्रव्रज्या होती है-ऐसा जानना चाहिए। 崇明崇明崇明崇明崇明藥業兼藥崇崇崇崇崇明 崇先养养擺擺禁藥男崇崇崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸勇攀事業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy