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________________ 業糕糕糕糕業業業業業 रहित सामान्य जनों के अपेक्षा से रहित सब जगह प्रव्रज्या कही है। आचार्य कुन्दकुन्द नहीं की जाती ?" अष्ट पाहुड़ घर में तथा दरिद्री और धनवान में निरपेक्ष' अर्थात् ग्रहण किया गया है 'पिंड' अर्थात् आहार जिसमें ऐसी भावार्थ मुनि दीक्षा सहित होते हैं, वे आहार लेने जाते हैं तो ऐसा नहीं विचारते कि बड़े घर जाना अथवा छोटे घर जाना तथा दरिद्री के न जाना, धनवान के जाना ऐसे वांछा रहित जहाँ अपने योग्य निर्दोष आहार हो वहाँ सर्वत्र ही जाकर योग्य 卐 आहार लेते हैं- ऐसी दीक्षा है ।४४ ।। स्वामी विरचित उत्थानिका टि0 - 1. 'श्रु0 टी0' के अनुसार 'सर्व जायगां' का अर्थ है - 'सर्वत्र योग्य गह में आहार स्वीकृत करना ।' 'योग्य गह' पद पर वहाँ प्रन उठाया है कि वे अयोग्य गह कौन से हैं जिनमें भिक्षा ग्रहण आगे फिर कहते हैं : उत्तर में कहा है कि गायक-गाने बजाने वाले गंधर्व, कोटपाल, नीचकर्म से आजीविका करने 【卐卐卐糕 वाले, माली, विलिंगी-मिथ्याभेषधारी साधु, वेया, तेली, दीनता के वचन बोलने वाले श्रावक, बालकों का जन्म कराने वाली सूतिका, छिंपक कपड़े छापने वाले, मदिरा बेचने वाले, मद्यपायी संसर्गी मद्य पीने वालों के साथ संसर्ग रखने वाले, जुलाहे, मालाकार, कुंभकार, नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार, सुनार, ल्पी - पत्थर आदि घड़ने वाले के घर में मुक्ति की इच्छा मन से विचार कर लेना चाहिए।' करने वाले यति को आहार नहीं करना चाहिए और इन्हीं के समान अन्य लोगों का भी अपने ४-४६ 參參參參參 *業縢糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕縢縢業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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