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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
| उत्थानिका
जैन दीक्षा में राग-द्वेष का लाभ-अलाभ और त ण- कंचन में है । । ४७ ।।
आगे फिर कहते हैं =
सत्तूमित्ते य समा पसंसनिंदा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ४७ ।। निंदा-प्रशंसा, शत्रु-मित्र तथा अलाभ व लाभ में ।
तण-कनक में समभाव होता, प्रव्रज्या ऐसी कही ।। ४७ ।।
स्वामी विरचित
अर्थ
जिसमें १. शत्रु-मित्र में समभाव है, २. प्रशंसा - निंदा में और लाभ – अलाभ में समभाव है तथा ३. तण - कंचन में समभाव है- प्रव्रज्या ऐसी कही है।
भावार्थ
अभाव है इसलिए शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा, तुल्य भाव है- जैन मुनियों की ऐसी दीक्षा
उत्थानिका
आगे फिर कहते हैं :
दारिद्दे ईसरे
उत्तममज्झमगेहे
णिरावेक्खा ।
सव्वत्थ गिहदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। ४८ ।। उत्तम वा मध्यम गेह, निर्धन - सधन में निरपेक्ष हो ।
सर्वत्र पिण्ड का ग्रहण जिसमें प्रव्रज्या ऐसी कही । । ४8 ।।
अर्थ
'उत्तम गेह' अर्थात् शोभा सहित राजभवन आदि और 'मध्यमगेह' अर्थात् शोभा
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