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________________ 糕蛋糕糕糕糕渊渊渊渊渊渊卐 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ परिषहों का उसमें सहना है, कषायों का जीतना है और पापारम्भ का अभाव है-ऐसी दीक्षा अन्य मत में नहीं है ।। ४५ ।। उत्थानिका स्वामी विरचित फिर कहते हैं : धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाई छेत्ताइं । कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया । । ४६ । । धन-धान्य, वस्त्र, कनक व शयनासन अरु क्षेत्रादि के । सब ही कुदान से रहित है वह, प्रव्रज्या ऐसी कही । । ४६ । । अर्थ धन, धान्य और वस्त्र का दान, 'हिरण्य' अर्थात् चाँदी, सोना आदि, शय्या, आसन एवं यहाँ आदि शब्द से छत्र - चँवरादि तथा क्षेत्र आदि - इन कुदानों के देने से जो रहित है ऐसी प्रव्रज्या कही है। भावार्थ कई अन्यमती ऐसी प्रव्रज्या कहते हैं कि गाय, धान्य, वस्त्र, सोना, चाँदी, शयन, आसन, छत्र, चँवर एवं भूमि आदि का दान करना सो प्रव्रज्या है । इसका इस गाथा में निषेध किया है कि 'प्रव्रज्या तो निर्ग्रन्थस्वरूप है, जो धन-धान्य आदि रखकर दान करता है उसके कैसी प्रव्रज्या ! यह तो ग हस्थ का कर्म है तथा ग हस्थ के भी इन वस्तुओं के दान से विशेष पुण्य तो उत्पन्न नहीं होता, पाप बहुत है पुण्य अल्प है सो बहुत पाप का कार्य तो ग हस्थ को भी करने में लाभ नहीं है, जिसमें बहुत लाभ हो वह ही करना योग्य है और दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित ही जानना' । । ४६ ।। 卐卐卐糕糕 ४-४४ 專業 隱卐卐業業業業業業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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