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अष्ट पाहुड़
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स्वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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अर्थात् स्वेच्छाचारियों एवं भ्रष्टाचारियों के द्वारा आसक्त हों, युक्त हों तो वे मुनिप्रधान उनको इष्ट नहीं करते, वहाँ नहीं रहते।
कैसे हैं वे मुनिप्रधान-पाँच महाव्रतों से संयुक्त हैं। और कैसे हैं-पाँचों इन्द्रियों का है भली प्रकार जीतना जिनके। और कैसे हैं-निरपेक्ष हैं, किसी प्रकार की वांछा से मुनि नहीं हुए हैं। और कैसे हैं-स्वाध्याय' और ध्यान से युक्त हैं, या तो शास्त्र पढ़ते-पढ़ाते हैं या धर्म-शुक्ल ध्यान करते हैं।
भावार्थ यहाँ दीक्षा के योग्य स्थान तथा दीक्षा सहित दीक्षा को देने वाले मुनि का तथा उनके द्वारा चिन्तवन करने योग्य व्यवहार का स्वरूप कहा है।।४२-४४।।
उत्थानिका |
आगे 'प्रव्रज्या' का स्वरूप कहते हैं :गिहगंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४५।।
ग हग्रंथ मोहविमुक्त, है परिषहजयी, जितकषायी। है मुक्त पापारम्भ से, जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ।।४५।।
अर्थ जो १.'ग ह' अर्थात् घर और 'ग्रन्थ' अर्थात् परिग्रह-इन दोनों से तथा इनके मोह-ममत्व एवं इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित है, २. बाईस परिषहों का सहना जिसमें होता है, ३. जीती गई हैं कषाय जिसमें तथा ४. पाप रूप जो आरम्भ उससे रहित है-ऐसी प्रव्रज्या जिनेश्वर देव ने कही है।
भावार्थ जैन दीक्षा में कुछ भी परिग्रह नहीं है, सर्व संसार का मोह नहीं है, बाईस
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टि0-1.ढूंढारी टीका में देखें ।
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