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अष्ट पाहुड़
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स्वामी विरचित
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आचाय कुन्दकुन्द
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अर्थ (१) दीक्षा के योग्य स्थान-सूना घर, व क्ष का मूल, कोटर, उद्यान, वन, श्मशान भूमि, पर्वत की गुफा, पर्वत का शिखर, भयानक वन अथवा वसतिका-इनमें दीक्षा सहित मुनि तिष्ठते हैं, ये दीक्षा के योग्य स्थान हैं। (२) दीक्षा सहित मुनियों के ध्याने योग्य पदार्थ
१. तीर्थस्थान-'स्ववशासक्त' अर्थात् स्वाधीन मुनियों से आसक्त जो क्षेत्र जिनमें मुनि | बसते हैं तथा जहाँ से मुक्ति प्राप्त करते हैं ऐसे तो तीर्थस्थान हैं।
२. वच, चैत्य और आलय का त्रिक-जो पूर्व में 'उक्त' अर्थात् आयतन आदि, परमार्थ रूप संयमी मुनि, अरहंत सिद्ध स्वरूप-इनके नाम के अक्षर रूप मंत्र तथा इनकी आज्ञा रूपी वाणी सो तो वच है; उनके आकार की धातु-पाषाण की प्रतिमा का स्थापन सो चैत्य है और वह प्रतिमा, अक्षर मंत्र एवं वाणी जिसमें स्थापित किए जाएं ऐसा आलय-मन्दिर, यंत्र वा पुस्तक ऐसा वच, चैत्य एवं आलय का त्रिक है। ३. जिनभवन-"जिनभवन' अर्थात् अक त्रिम चैत्यालय-मन्दिर ऐसा आयतनादि और इनके समान ही जिनका व्यवहार है उन्हें जिनमार्ग में जिनवर देव ने 'वेद्य' अर्थात् दीक्षा सहित मुनियों के ध्यान करने योग्य–चिन्तवन करने योग्य कहा है।
जो मुनिव षभ अर्थात मुनियों में प्रधान हैं वे ऊपर जैसे कहे वैसे शून्य ग हादि तथा तीर्थ, नाममंत्र, स्थापन रूप मूर्ति और उनका आलय-मन्दिर, पुस्तक और अक त्रिम जिनमन्दिर उनको 'णिइच्छन्ति' अर्थात निश्चय से इष्ट करते हैं, उनमें सूने घर आदि में तो बसते हैं और तीर्थ आदि का ध्यान, चिन्तवन करते हैं तथा दूसरों को वहाँ दीक्षा देते हैं।
यहाँ 'णिइच्छन्ति' का पाठान्तर ‘ण इच्छन्ति' ऐसा भी है उसका काकोक्ति से तो ऐसा अर्थ होता है कि उन्हें क्या इष्ट नहीं करते अर्थात् करते ही हैं और एक टिप्पण में ऐसा अर्थ किया है कि ऐसे शून्य ग हादि तथा तीर्थादि यदि 'स्ववशासक्त'
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टि0-1. 'श्र0 टी0'-वसतिका अर्थात् नगर के बाहर बने हए मठ आदि में या ग्राम-नगर आदि में मनि
को रहना चाहिए। नगर में अधिक से अधिक पांच रात तक रहना चाहिए और ग्राम में विशेष निवास न करना चाहिए। अधिक निवास करने से उस स्थान से अथवा ग्राम-नगरादि में रहने वाले मानवों से ममत्व हो जाता है इसलिए उसका निषेध है।
2. ढूढारी टीका में देखें। 崇崇明業崇崇明藥明黨然崇明崇崇明崇明崇崇明崇明