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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
निर्वाणकल्याणक–पुनः कुछ काल बाद आयु के दिन थोड़े रहते हैं तब योगों का निरोध कर अघातिया कर्मों का नाश करके मुक्ति पधारते हैं तब पीछे शरीर का संस्कार करके इन्द्र उत्सव सहित निर्वाण कल्याणक करता है ।
इस प्रकार तीर्थंकर पंच कल्याणक की पूजा पाकर अरहंत कहलाकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं - ऐसा जानना । । ४१ ।।
उत्थानिका 99
स्वामी विरचित
आगे प्रव्रज्या का निरूपण करते हैं जिसे दीक्षा कहते हैं सो प्रथम ही दीक्षा के योग्य स्थान विशेष का तथा दीक्षा सहित मुनि जहाँ तिष्ठते हैं उसका स्वरूप कहते हैं :
वा ।
वा ।। ४२ ।।
सुण्णहरे तरुहिट्टे उज्जाणे तह मसाणवासे गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते सवसासत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च तेहिं । जिणभवणं अह वेज्झं जिणमग्गे जिणवरा विंति ।। ४३ ।। पंचमहव्वयजुत्ता पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा | सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छंति ।। ४४ ।। तिकलं ।। तरुतल हो अथवा शून्यग ह, उद्यान वा श्मशान हो । गिरिगुफा, गिरि का शिखर वा विकराल वन अथवा वसति । । ४२ ।। निजवशासक्त तो तीर्थ व वच- चैत्य-आलय त्रिक अरु ।
जिनभवन हैं ध्यातव्य जिनमारग में जिनवर ने कहा । । ४३ ।।
पंचेन्द्रिसंयत, पँच महाव्रत सहित व निरपेक्ष अरु ।
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स्वाध्याय-ध्यान से युक्त मुनिवरव षभ इन इच्छा करें । । ४४ ।।
४-४१
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