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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
लगाता है, सनत्कुमार व महेन्द्र इन्द्र चँवर ढोरते हैं, पुनः मेरु के पांडुक वन की
पांडुक शिला पर सिंहासन के ऊपर उनको स्थापित करते हैं, सारे देव क्षीर समुद्र
से एक हजार आठ कलशों में जल लाकर देव - देवांगनाओं के गीत, न त्य एवं बाजों के बड़े उत्सव सहित प्रभु के मस्तक पर ढारकर जन्मकल्याणक का अभिषेक करते हैं, तत्पश्चात् श्रंगार करके वस्त्र - आभूषण पहिनाकर माता के महल में
लाकर उन्हें माता को सौंप देते हैं, पुनः इन्द्रादि देव अपने स्थान को चले जाते हैं और कुबेर सेवा के लिए रहता है, पीछे वे कुमार अवस्था तथा राज्य अवस्था भोगते हैं जिसमें मनोवांछित भोग भोगते हैं ।
तपकल्याणक - फिर कुछ वैराग्य का कारण पाकर संसार - शरीर-भोगों से विरक्त होते हैं तो लौकान्तिक देव वैराग्य को बढ़ाने वाली स्तुति करते हैं। तत्पश्चात् इन्द्र आकर तपकल्याणक करता है और उन्हें पालकी में बैठाकर बड़े उत्सव से वन में ले जाता है । वहाँ प्रभु पवित्र शिला पर बैठकर पंचमुष्टि से लोंच करके पंच महाव्रत अंगीकार करते हैं तथा समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बर रूप धारण करके ध्यान करते हैं तो उनके तत्काल मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न होता
है।
ज्ञानकल्याणक - फिर कुछ काल व्यतीत होने पर तप के बल से घातिया कर्मों
की सैंतालीस एवं अघातिया कर्मों की सोलह से तरेसठ प्रक तियों का सत्ता में से नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न कर अनन्त चतुष्टय पाकर क्षुधादि अठारह दोषों से रहित हो अरिहंत होते हैं तब इन्द्र आकर समवशरण की रचना करता है सो आगमोक्त अनेक शोभा सहित मणिसुवर्णमयी कोट, खाई, वेदी, चारों दिशाओं में चार दरवाजे, नाट्यशाला एवं वन आदि की अनेक रचना करता है, उसके मध्य सभामंडप में बारह सभाओं में मुनि, आर्यिका श्रावक, देव, देवी एवं तिर्यंच तिष्ठ हैं। प्रभु के अनेक अतिशय प्रकट होते हैं, सभामंडप के बीच तीन पीठ पर गंधकुटी के मध्य सिंहासन के ऊपर अंतरीक्ष प्रभु पद्मासन से विराजते हैं और आठ प्रातिहार्य युक्त होते हैं, उनकी वाणी खिरती है जिसको सुनकर गणधर द्वादशांग शास्त्र रचते हैं-ऐसे केवलज्ञान कल्याणक का उत्सव इन्द्र करता है, फिर पीछे प्रभु
विहार करते हैं तो उसका बड़ा उत्सव देव करते हैं ।
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