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अष्ट पाहुड़
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स्वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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कैसी है-"निःस्नेहा' अर्थात् जिसमें किसी से स्नेह नहीं है, परद्रव्य से रागादि रूप सचिक्कण भाव जिसमें नहीं है। और कैसी है-'निर्लोभा' अर्थात् जिसमें किसी परद्रव्य को लेने की वांछा नहीं है। और कैसी है-'निर्मोहा' अर्थात् जिसमें किसी परद्रव्य से मोह नहीं है, भूलकर भी परद्रव्य में आत्मबुद्धि उत्पन्न नहीं होती। और कैसी है-निर्विकार है। बाह्य-अभ्यंतर विकार से रहित है। बाह्य में तो शरीर की चेष्टा का, वस्त्राभूषणादि का तथा अंग-उपांग का और अन्तरंग में काम-क्रोधादि का विकार जिसमें नहीं है।
और कैसी है-'निःकलुषा' अर्थात् मलिनभाव से रहित हैं, आत्मा को कषायें मलिन करती हैं सो कषाय जिसमें नहीं है। और कैसी है-'निर्भया' अर्थात् किसी प्रकार का भय जिसमें नहीं है क्योंकि जो अपने स्वरूप को अविनाशी जाने उसे किसका भय हो।
और कैसी है-"निराशभावा' अर्थात् जिसमें किसी प्रकार से किसी परद्रव्य की आशा का | भाव नहीं है, आशा तो किसी वस्तु की प्राप्ति न हो उसकी लगी रहती है और जहाँ
परद्रव्य को अपना जाना नहीं और अपने स्वरूप की प्राप्ति हो गई तब कुछ पाना शेष न रहा फिर किसकी आशा हो। प्रव्रज्या ऐसी कही है।
भावार्थ जैन दीक्षा ऐसी है, अन्यमत में स्व–पर द्रव्य का भेदज्ञान नहीं है उनके ऐसी दीक्षा कैसे हो।।५० ।।
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टि0-1. 'श्रु0 टी0'-णिव्वियार' प्राकृत पाठ के निर्विकार' और 'निर्विचार'-ऐसे दो अर्थ हैं।
जिनदीक्षा वस्त्र आभरण आदि वेष विकार से रहित निर्विकार होती है अथवा निर्वियार होती है अर्थात् 'निचितो विचारो विवेको भेदज्ञानं यस्यां सा निर्विचारा'-निचित रूप से विचार विवेक जिसमें होता है वह निर्विचार है। जिनदीक्षा 'आत्मा पथक् है और कर्म पथक् है'-इस विवेक से सहित होती है।'
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