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अष्ट पाहुड़
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वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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अर्थ पाँच तो इन्द्रिय प्राण, मन-वचन-काय तीन बल प्राण, एक श्वासोच्छवास और एक आयु प्राण-ये दस प्राण हैं।
भावार्थ ऐसे जो ये दस प्राण कहे उनमें तेरहवें गुणस्थान में भाव इन्द्रिय और भाव मन की क्षयोपशम भाव रूप प्रव त्ति नहीं है इस अपेक्षा से तो कायबल, वचनबल, श्वासोच्छवास और आयु–ये चार प्राण ही कहे जाते हैं और द्रव्य की अपेक्षा दसों ही कहलाते हैं। इस प्रकार 'प्राण के द्वारा' अरहंत का स्थापन है।।३५।।
उत्थानिका
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आगे 'जीवस्थान' के द्वारा कहते हैं :मणुयभवे पंचिंदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे। एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो।। ३६।।
है मनुज भव पंचेन्द्रि, जीवस्थान उनका चौदवाँ । इन गुण गणों से युक्त, 'गुण' आरूढ़ श्री अरहंत हैं। ।३६ । ।
अर्थ मनुष्य भव में पंचेन्द्रिय नामक चौदहवें 'जीवस्थान' अर्थात जीवसमास में इन गुणों के समूह से युक्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त अरहंत होते हैं।
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टि0-1.परिभाषा-अनंतानंत जीव और उनके भेद-प्रभेदों का जिनमें संग्रह किया जाता है उन्हें
जीवसमास' कहते हैं। 2. श्रु0 टी0'-'चौदहवें गुणस्थान में भी अरहन्त होते हैं अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवली तो अर्हन्त हैं ही, चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भी अर्हन्त होते हैं। इन सब गुणों के समूह से युक्त मनुष्य जब तक तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में आरूढ़ है तब तक
अर्हन्त कहलाता है और गुणस्थानों से पार होने पर सिद्ध कहलाता है।' 先崇崇崇明崇崇崇明屬崇明崇崇崇明崇站業