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________________ पाहड़M alirates वामी विरचित .... आचाय कुन्दकुन्द FDOG HDod Dec ADDA •load भावार्थ पर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार है-एक पर्याय से चयकर जीव जब अन्य पर्याय को प्राप्त होता है तो उत्क ष्ट तीन समय अंतराल में रहता है फिर यदि सैनी पंचेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होता है तो वहाँ आहार, भाषा और मन-इन तीन जाति की वर्गणाओं को ग्रहण करता है। इस प्रकार ग्रहण करके आहार जाति की वर्गणा से तो आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास-ये चार पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त काल में पूर्ण करता है फिर भाषा व मनो जाति की वर्गणा से अन्तर्मुहूर्त ही में भाषा और मन पर्याप्ति पूर्ण करता है-इस प्रकार छहों पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण करता है, फिर आयु पर्यन्त पर्याप्त ही कहलाता है और नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण किया ही करता है। यहाँ आहार नाम कवलाहार का न जानना। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान में भी अरहंत के पर्याप्तियाँ पूर्ण ही हैं। ऐसे पर्याप्ति के द्वारा अरहंत का स्थापन है।।३४।। उत्थानिका 听听听听听听听听听听听听听听听器 崇先养养帶藥崇崇崇崇崇勇攀事業禁禁禁禁禁禁勇 आगे 'प्राण' के द्वारा कहते हैं :पंच वि इंदियपाणा मणवचकाएण तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होति दहपाणा।। ३५।। इन्द्रिय प्राण तो पाँच, मन, वच, काय त्रय बल प्राण हैं। श्वासोच्छ्वास है प्राण आयु, प्राण ये दस प्राण हैं । ।३५ ।। टि0-1. सकल लाभान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय हो जाने पर केवली भगवान के रीर की स्थिति में कारणभूत, अन्य साधारण मनुष्यों में नहीं पाए जाने वाले असाधारण, परम भ, सूक्ष्म, पुण्य रूप, दिव्य नोकर्म वर्गणा के अनन्त परमाणु प्रतिसमय रीर के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, वही उनका आहार कहलाता है। अन्य मनुष्यों के समान कवलाहार उनमें नहीं होता क्योंकि वह निद्रा, ग्लानि, आलस्य आदि अनेक दोषों को उत्पन्न करता है और जिसके निद्रा आदि दोष हैं वह आप्त कैसे हो सकता है ! 業業業業樂業業|崇勇崇崇崇崇崇崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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