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अष्ट पाहुड़
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वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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8
2000
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सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार-ये चौदह मार्गणाएँ होती हैं। अरहंत तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में होते हैं। उसमें मार्गणाओं को लगाओ तो गति चार में उनके मनुष्य गति है; इन्द्रिय जाति पाँच में पंचेन्द्रिय जाति है; काय छह में त्रसकाय है; योग पन्द्रह में मनोयोग तो सत्य और अनुभय ऐसे दो और ये ही दो वचनयोग तथा काययोग औदारिक-इस प्रकार पाँच योग हैं और यदि समुद्घात करें तो उसके औदारिक मिश्र और कार्मण ये दो मिलकर सात योग हैं; वेद तीनों ही का अभाव
है; कषाय पच्चीस सब ही का अभाव है; ज्ञान आठ में केवलज्ञान है; संयम सात EE में एक यथाख्यात है; दर्शन चार में एक केवलदर्शन है; लेश्या छह में एक शुक्ल
है जो योगनिमित्तक है; भव्य दो में एक भव्य है; सम्यक्त्व छह में क्षायिक सम्यक्त्व है; संज्ञी दो में संज्ञी हैं सो द्रव्य से हैं, भाव से क्षयोपशम रूप भाव मन का अभाव है; आहार दो में आहारक हैं सो नोकर्मवर्गणा की अपेक्षा हैं, कवलाहार नहीं है और समुद्घात करें तो अनाहारक भी हैं-ऐसे दोनों हैं। इस प्रकार मार्गणा की अपेक्षा अरहंत का स्थापन जानना।।३३।।
उत्थानिका
उत्थानिका
आगे 'पर्याप्ति' से कहते हैं :आहारो य सरीरो इंदिय मण आणपाण भासा य। पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरहो।। ३४।।
आहार, तन, मन, इन्द्रि, भाषा और श्वासोच्छ्वास इस। पर्याप्तिगुणसम द्ध उत्तम, देव श्री अरहंत हैं ।।३४ ।।
अर्थ __ आहार, शरीर, इन्द्रिय, मन, 'आणपाण' अर्थात् श्वासोच्छवास और भाषा-ऐसी छह पर्याप्तियाँ हैं। इस पर्याप्ति गुण के द्वारा 'सम द्ध' अर्थात युक्त उत्तम देव
अरहंत हैं। 崇崇明業崇崇明崇明慧然崇明崇崇明崇明崇崇明崇明
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