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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
का अभाव, ३. शरीर की छाया का न पड़ना, ४. चार मुखों का दीखना, ५. सब
विद्याओं का स्वामिपना ६. नेत्रों की पलकों का न गिरना, ७. नख केशों का नहीं
बढ़ना, ८. सौ योजन तक सुकाल, ६. आकाशगमन तथा १०. कवलाहार का न होना ।
चौदह देवकत ये हैं :- १. सकलार्द्धमागधी भाषा, २. सब जीवों में मैत्री भाव,
३. सब ऋतुओं के फल-फूलों का फलना और फूलना, ४. दर्पण के समान भूमि, ५. कंटक रहित भूमि, ६. मंद सुगन्धित पवन, ७. सबके आनंद का होना, ८. गंधोदक की व ष्टि, ६. चरणों के नीचे देवों के द्वारा कमल रचना, १०. सर्व धान्यों की उत्पत्ति, ११. आकाश में दिशाओं का निर्मल होना, १२. देवों को आह्वानन शब्द, १३. धर्म चक्र का आगे चलना और १४. इन अष्ट मंगल द्रव्यों का होना- १. छत्र, २. ध्वजा, ३. दर्पण, ४. कलश, ५. चँवर, ६. भंगार (झारी), ७. ताल (पंखा ) और ८. सुप्रतीक अर्थात् ठौना।
ऐसे चौंतीस अतिशय के नाम कहे ।
जो आठ प्रतिहार्य होते हैं उनके नाम ये हैं - १. अशोक वक्ष, २. पुष्पव ष्टि,
३. दिव्यध्वनि, ४. चँवर, ५. सिंहासन, ६. भामंडल, ७. दुन्दुभि बाजा और ८. छत्र । इस प्रकार गुणस्थान के द्वारा अरहंत का स्थापन कहा।।३२।।
उत्थानिका
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अब 'मार्गणा' के द्वारा कहते हैं :
गइ इंदिए य काए जोए वेए कसाय णाणे य ।
संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ।। ३३ ।।
गति, काय एवं इन्द्रि, योग, कषाय, वेद व ज्ञान है ।
द ग्, भव्य, संयम, संज्ञि, लेश्या, समकित अरु आहार हैं । । ३३ ।।
अर्थ
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व,
४-३२
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